शिल्पकर्म एक ब्राह्मण कर्म

शिल्पकर्म एक ब्राह्मण कर्म



*शिल्पकर्म* की उत्पत्ति वेदांग कल्प के शुल्ब-सूत्र से हुई है और वास्तुकला की उत्पत्ति वेदांग ज्योतिष की संहिता स्कंध से हुई है। वेदांग ग्रंथों का अध्ययन करना ब्राह्मणो का प्रमुख कर्तव्य आदिकाल से रहा है। शुल्ब-सूत्र से यज्ञवेदी (यज्ञकुंड), यज्ञशाला, यज्ञमंडप, यज्ञपात्र, मूर्ति आदि का निर्माण होता हैं। जो ब्राह्मण शुल्ब-सूत्र में निहित शिल्पकर्म नहीं जानता वो ये निर्माण नहीं कर सकता । जो ब्राह्मण शिल्पकर्म नहीं जानता उसे यज्ञ करने का अधिकार भी नहीं है क्योंकि आदिकाल से लेकर अब तक वैदिक यज्ञों में यज्ञशाला, यज्ञमंडप, यज्ञवेदी, यज्ञपात्र आदि शिल्पकर्म से ब्राह्मण ही निर्मित करते आए हैं। इसलिए ब्राह्मणों के द्वारा किए जाने वाले शिल्पकर्म को ब्रह्मशिल्प कर्म भी कहा जाता है औऱ ऐसे ब्राह्मणों को ब्रह्मशिल्पी ब्राह्मण भी कहा जाता हैं। वास्तुकला से बड़े बड़े नगर, दुर्ग, किले, देवालय (मंदिर), महल, वापी, कूप, बावड़ी, तालाब,बड़े बड़े जलाशय आदि का निर्माण होता है। जिन ब्रह्मशिल्प कर्मो का निर्वहन आज भी विश्वकर्मा शिल्पी ब्राह्मण पाँच प्रकार के शिल्पकर्मो के माध्यम से करते आ रहें है। पंचशिल्पकर्म निम्न है , लौह शिल्प - लौहकार ब्राह्मण (लोहार), काष्ठ शिल्प - काष्ठकार ब्राह्मण (बढ़ई) , ताम्र शिल्प - ताम्रकार ब्राह्मण, शिला शिल्प - शिल्पी ब्राह्मण , स्वर्ण शिल्प - स्वर्णकार ब्राह्मण (सोनार) करते है। ये सब कर्म शिल्पविज्ञान के अन्तर्गत आता है अतः इसके ज्ञाता वैज्ञानिक भी कहलाते हैं। लौह शिल्प औऱ काष्ठ शिल्प को करने वाले ब्राह्मण आज भी समस्त भारतवर्ष में पाए जाते हैं। उत्तर, मध्य और पश्चिम भारत में जो स्वर्णकार ,ताम्रकार है उनमें अधिकतर मेढ क्षत्रिय और हैहयवंशी क्षत्रिय हैं इनका विश्वकर्मा वंश के मूल ब्राह्मणों से कोई संबंध नहीं हैं। इन क्षेत्रों में कुछ लोग हों सकते हैं जो मूलरूप से विश्वकर्मा ब्राह्मण कुल के स्वर्णकार, ताम्रकर औऱ शिल्पकार हों परंतु, अधिकतर नहीं हैं। मूलरूप से विश्वकर्मा स्वर्णकार ब्राह्मण और विश्वकर्मा ताम्रकार ब्राह्मण आज भी महाराष्ट्र और दक्षिण भारत के सभी राज्यों में पाए जाते हैं। जो मूल रूप से विश्वकर्मा वैदिक ब्राह्मणों की परंपराओं से आदिकाल से जुड़े हुए हैं। उत्तर, मध्य और पश्चिम भारत में जो कुछ शिल्पकार जाती हैं वो भी विश्वकर्मा वैदिक शिल्पी ब्राह्मणों के अंतर्गत नहीं आती हैं जिन्होंने व्यवसाय के अभाव में अपनी जीविका चलाने के लिए शिल्प को अपना लिया। मूलरूप से विश्वकर्मा शिल्पकार ब्राह्मण समाज जो पत्थर के शिल्प से जुड़ा है वह आज भी महाराष्ट्र और दक्षिण भारत के सभी राज्यों में आज भी परंपराओं से पाए जाते है परंतु, कुछ इनमें भी अपवाद हो सकते हैं जो विश्वकर्मा कुल के पंचशिल्पी या ब्रह्मशिल्पी ब्राह्मण नहीं है। झारखंड और बिहार के कुछ भागों में लोहारा या लोहरा नाम से आदिवासी वनवासी जनजाति समुदाय है जिनका विश्वकर्मा कुल परंपरा के विश्वकर्मा पांचाल ब्राह्मण लोहार से कोई संबंध नहीं है। ऐसे ही घुमक्कड़ प्रकार की कुछ आदिवासी जनजाति जो जीविका के अभाव में लोहे का छोटा-मोटा कर्म करते हैं राजस्थान में उनको गाड़िया लोहार और महाराष्ट्र में भटक्या जमाती या गाड़िया लोहार बोला जाता है इनका भी विश्वकर्मा कुल के पांचाल ब्राह्मण लोहार से कोई संबंध नहीं है। शिल्प अपने आप में एक व्यापक शब्द है शिल्प करने का अधिकार शास्त्रों में तीन वर्णों को है ब्राह्मण,क्षत्रिय और वैश्य। परंतु, जो ब्राह्मण जाति ब्रह्मशिल्प कर्म के पांच प्रकार के शिल्पकर्म (लौहशिल्प, काष्ठशिल्प, ताम्रशिल्प, शिलाशिल्प, स्वर्णशिल्प) से जुड़ी है वही विश्वकर्मा वैदिक ब्राह्मण कहलाते हैं। वैदिक गुरुकुलों में अथर्ववेद का उपवेद अर्थवेद या कहें स्थापत्यवेद अर्थात शिल्पवेद का अध्ययन ब्राह्मणो के लिए ब्रह्मविद्या में श्रेष्ठता का प्रतीक होता है। चरणव्यूह के अथर्ववेद-खण्ड से ये प्रमाणित होता है कि अथर्ववेद का उपवेद स्थापत्यवेद (शिल्पवेद ) है; "सर्वेषामेव वेदानामुपवेदा भवन्ति - ऋग्वेदस्यायुर्वेद उपवेदो, यजुर्वेदस्य धनुर्वेद उपवेदः सामवेदस्य गान्धर्ववेद उपवेदोऽथर्ववेदस्य स्थापत्यवेद उपवेद: इत्याह भगवान् कात्यायनः |" (चरणव्यूह-परिशिष्टे)।

स्थापत्यवेद (शिल्पवेद) का ज्ञाता जो आचार्य होता हैं उस ब्रह्मशिल्पी को ' स्थपति ' कहा जाता हैं। स्थपति शिल्पी आचार्य के लक्षण में प्रसिद्ध वास्तुशास्त्र शिल्पशास्त्र के ग्रंथ जैसे मयमतं , विश्वकर्म प्रकाश ,समरांगण सूत्रधार आदि कहते हैं कि वो सर्वशास्त्रों का ज्ञाता होना चाहिये। जैसे वेद वेदांग(ज्योतिष , कल्प आदि)। इससे ये सिद्द होता हैं कि स्थपति शिल्पी 'ब्राह्मण' ही होता हैं। यथा प्रमाण ; 

*स्थपति स्थापनाईः स्यात् सर्वशास्त्र विशारदः।*

*न हीनाग्डों अतिरिक्तग्डों धार्मिकस्तु दयापरः ॥*

   - (मयमतम् अध्याय ५, श्लोक - १५)

अर्थात - जो स्थपति शिल्पी निर्माण कला में सिद्धहस्त सम्पूर्ण शास्त्रों का विशारद अर्थात पंडित या ज्ञाता हो। जिसके शरीर का कोई अवयव न अधिक हो न कम हो, दयालु और धर्मात्मा तथा कुलीन हो।

स्थपति ब्रह्मशिल्पी ब्राह्मण अर्थात विश्वकर्मा वैदिक ब्राह्मण द्वारा कर्मकांड का प्रमाण ; 

*वास्तुदैवतकर्माणि विधिना कारयन्ति च ।*

*स्थपतीनथ गोविन्दस्तत्रोवाच महामतिः ॥*

(हरिवंशपुराण/पर्व २(विष्णुपर्व)/अध्याय - ५८,श्लोक - १३)

अर्थात - वे (ब्रह्मशिल्पी ब्राह्मण) निर्धारित कर्मकांडों के अनुसार वास्तु और देवता के पूजा अनुष्ठान भी करते हैं। तब महान बुद्धिजीवी गोविन्द ने स्थपति (ब्रह्मशिल्पी ब्राह्मण) को सम्बोधित किया। 

वास्तुसूत्र उपनिषद् से स्थपति की व्याख्या ; 

*वृत्तज्ञानं रेखाज्ञानं च यो जानाति स स्थापकः ॥*

  -(वास्तुसूत्रोपनिषत्/प्रथम प्रपाठक - १/४)

अर्थात - जो वृत्तों का ज्ञान और रेखागणित का ज्ञान जानता है, वह अधिष्ठाता (स्थपति) है। 

*स्थापकाचार्या स्तम्भाद्रूपं बोधयन्ति ॥*

(वास्तुसूत्रोपनिषत्/चतुर्थ प्रपाठकः ४/१९)

अर्थात - स्थापना के आचार्य (गुरु) अर्थात स्थपति स्तंभ से रूप को प्रबुद्ध करते हैं।

*शिल्पात् प्रतिमा जायन्ते ॥*

  -(वास्तुसूत्रोपनिषत्/प्रथम प्रपाठक- १/५)

अर्थात - मूर्तियाँ शिल्प कौशल से निर्मित होती हैं।


वास्तु की श्रेष्ठता के प्रमाण ; 

*वास्तु षडङ्गमिति श्रेष्ठम् ॥* 

 - (वास्तुसूत्रोपनिषत्/प्रथमः प्रपाठकः १/८ )

अर्थात - छः वेदांगों में वास्तु (ज्योतिष) श्रेष्ठ है।


*शुल्वं यज्ञस्य साधनं शिल्पं रूपस्य साधनम् ॥* 

  (वास्तुसूत्रोपनिषत्/चतुर्थ प्रपाठकः - ४/९ ॥)

अर्थात - शुल्व सूत्र यज्ञ का साधन है तथा शिल्प कौशल उसके रूप का साधन है।

उपर्युक्त , वाक्य को इसप्रकार समझा जा सकता हैं कि यज्ञ के लिये यज्ञवेदी (यज्ञकुंड) निर्मित करने के लिये शुल्व सूत्र का ज्ञान उसको साधने के लिये आवश्यक हैं तथा शिल्प कौशल (शिल्पकर्म) से वो यज्ञवेदी (यज्ञकुंड) निर्मित होकर एक शिल्प रूप धारण कर लेती हैं। 


चारों वर्णों को लगभग शिल्प का अधिकार जिस कारण मनुष्यों का प्रमुख व्यवसाय शिल्प कहा गया हैं ; परंतु , ब्राह्मण जो शिल्प करता हैं वो ब्रह्मशिल्प हैं उसका अधिकार केवल ब्राह्मणों को हैं जैसे यज्ञवेदी , यज्ञशाला , यज्ञपात्र आदि का निर्माण । ब्राह्मण जो ब्रह्मशिल्प करता हैं वो अंततः ब्रह्म को जानकर पूर्ण ब्राह्मण बन जाता हैं अर्थात ब्रह्मलीन होकर मोक्ष को प्राप्त कर लेता हैं ; 

*मनुष्याणां वृत्तिर्मुख्येति ॥* (वास्तुसूत्रोपनिषत्/पञ्चम प्रपाठक- ५/१९ )

*वृत्तेर्निष्कल - सकल-भावा उपजायन्त इति मार्गः क्रियायाः परिणाम इति । तदर्थं शिल्पज्ञानादूपं ध्यायन्ति, स्थापका ब्राह्मणा भवन्ति ।* (वास्तुसूत्रोपनिषत्/पञ्चम प्रपाठक - ५/२०)

अर्थात - मनुष्य का प्रमुख व्यवसाय (शिल्प) है। ५.१९॥

जिस मार्ग से वृत्ति के शुद्ध - समग्र भाव उत्पन्न होते हैं, वह कर्म का फल है। उस उद्देश्य के लिए, वे शिल्प कौशल पर ध्यान देते हैं, और स्थापित करने वाले स्थपति शिल्पी 'ब्राह्मण'(ब्रह्मज्ञानी) बन जाते हैं। - ५.२०


*लक्षणप्रकाशार्थं शिल्पविद्या ॥*

(वास्तुसूत्रोपनिषत्/चतुर्थ प्रपाठक -६/३ )

अर्थात - शिल्प कौशल की कला का उपयोग विशेषताओं को दर्शाने के लिए किया जाता है।


संपूर्ण वेद सहित शिल्पवेद के साथ शास्त्रों के ज्ञाता को आचार्य पद प्राप्त होता है। वो ही यज्ञ के सर्वोच्च पद ' ब्रह्मा ' का अधिकारी होता है। इन्ही वैदिक ब्रह्मशिल्प कर्मो के धारण करने के कारण ये शिल्पी ब्रह्मशिल्पी भी कहलाते हैं। विश्वकर्मा वैदिक ब्राह्मण भारत वर्ष के लगभग सभी राज्यों में पाए जाते हैं उनके मुख्य उपनाम इस प्रकार हैं - शर्मा ,आचार्य (आचारी ,चारी) , विश्वकर्मा , पांचाल , धीमान ,जांगीड़, ओझा , झा , मैथिल , मालवीय ,गौड़ , सुथार या सुतार , मिस्त्री , राणा , महाराणा, वेदपाठक , महामुनि, दीक्षित , धर्माधिकारी , पंडित आदि १०० से ज्यादा उपनाम प्रचलित एवं प्रयोग होते हैं इनमें से कुछ उपनाम अन्य ब्राह्मणों द्वारा भी प्रयोग होता है। 

समस्त मनुष्य जाति देवाचार्य देवशिल्पी विश्वकर्मा द्वारा निर्मित शिल्प कर्मों के निर्माणों द्वारा अपनी जीविका चलाती है जो आदिकाल से चला आ रहा हैं जिसके प्रमाण अनेकों शास्त्रों में है; महाभारत , शिवमहापुराण आदि का प्रमाण देते हैं और अन्य पुराणों एवं शास्त्रों में भी यही श्लोक लगभग कुछ शब्दों के बदल के साथ यथारूप से हैं;

*भूषणानां च सर्वेषां कर्ता शिल्पवतां वरः।*

*यो दिव्यानि विमानानि त्रिदशानां चकारह।।*

*मनुष्याश्चोपजीवन्ति यस्य शिल्पं महात्मनः।*

*पूजयन्ति च यं नित्यं विश्वकर्माणमव्ययम्।।* 

अर्थात - सभी प्रकार के आभूषणों के कर्ता शिल्पियों में श्रेष्ठ देवाचार्य देवशिल्पी विश्वकर्मा जी ने देवताओं के दिव्य विमानों का अपनी ब्रह्मशिल्प विद्या से निर्माण किया। जिस महात्मा विश्वकर्मा जी के शिल्पकर्म से संपूर्ण मनुष्य अपनी अपनी उपजीविका का निर्वहन करते हैं वे लोग प्रतिदिन उस अविनाशी विश्वकर्मा का पूजन करतें हैं।

(महाभारत-०१-आदिपर्व-६७/२९-३०)

(ब्रह्माण्डपुराण/मध्यभाग/अध्याय-५९ श्लोक -१९)

(ब्रह्मपुराण/अध्याय-३, श्लोक - ४६)

(शिवपुराण/संहिता ५(उमासंहिता)अध्याय-३१,श्लोक- ३४) (विष्णुपुराण/प्रथमांश/अध्याय- १५,श्लोक -१२०)

(वायुपुराण/उत्तरार्धम्/अध्याय-२२,श्लोक - १८)

(हरिवंशपुराण/पर्व १,/अध्याय- ३, श्लोक - ४८)


शास्त्रों में विज्ञान अर्थात शिल्प के संदर्भ में अनेकों उल्लेख है। वास्तुकला ज्योतिष का मुख्य विषय है औऱ ज्योतिषी तो ब्राह्मणों को ही कहा जाता है। जिसक़े प्रमाण निम्न है;

 *वास्तुविद्यान्ग विद्यावायस विद्यानंतर..॥* - (वाराही संहिता)

वास्तुकला ज्योतिष शास्त्र का विषय है। 

वास्तुकला के अन्तर्गत घर , मकान , कुँवा, बावड़ी , पुल , नहर , किला , नगर, देवताओं के मंदिर आदि शिल्पादि पदार्थो की रचना की उत्तम विधि होती है।


*ब्राह्मणो के इष्टकर्म और पूर्तकर्म* 

ब्राह्मणो के दो प्रकार के कर्मो से परिचय कराएंगे। एक है 'इष्टकर्म ' और दूसरा है ' पूर्तकर्म '। इष्टकर्म से ब्राह्मणो को स्वर्गप्राप्ति होती है और पूर्तकर्मो से मोक्ष की प्राप्ति होती है। अर्थात जो ब्राह्मण इष्टकर्म ही मात्र करके पूर्तकर्म ना करें उसे मोक्ष नहीं मिल सकता है। जो सनातन धर्म में मनुष्यों का अंतिम लक्ष्य है। इसके प्रमाण स्वरूप कुछ धर्मशास्त्र से प्रमाण निम्न है ,

 *इष्टापूर्ते च कर्तव्यं ब्राह्मणेनैव यत्नत:।* 

 *इष्टेन लभते स्वर्ग पूर्ते मोक्षो विधियते॥* - (अत्रि स्मृति) 

(अष्टादशस्मृति ग्रन्थ पृष्ठ - ६ - पं.श्यामसुंदरलाल त्रिपाठी - मूल संस्करण)

अर्थात - इष्टकर्म और पूर्तकर्म ये दोनों कर्म ब्राह्मणो के कर्तव्य हैं इसे बड़े ही यत्न से करना चाहिए है। ब्राह्मणो को इष्टकर्म से स्वर्ग की प्राप्ति होती है और पूर्तकर्म से मोक्ष की प्राप्ति होती है। 

इसी प्रकार की व्याख्या यम ऋषि ने भी धर्मशास्त्र यमस्मृति में की है जो निम्न है ;

 *इस्टापूर्ते तु कर्तव्यं ब्राह्मणेन प्रयत्नत:।* 

 *इस्टेन लभते स्वर्ग पूर्ते मोक्षं समश्नुते*॥ - (यमस्मृति) 

   - (अष्टादशस्मृति ग्रन्थ पृष्ठ १०६ - पं.श्यामसुंदरलाल त्रिपाठी - मूल संस्करण)

अब अत्रि ऋषि की अत्रि स्मृति नामक धर्मशास्त्र के आगे के श्लोक से इष्ट कर्म और पूर्त कर्मो के अन्तर्गत कौन से कर्म आते है उसकी व्याख्या निम्न है ;

*अग्निहोत्रं तप: सत्यं वेदानां चैव पालनम्।*

*आतिथ्यं वैश्यदेवश्य इष्टमित्यमिधियते॥* *वापीकूपतडागादिदेवतायतनानि च।* 

*अन्नप्रदानमाराम: पूर्तमित्यमिधियते॥* - (अत्रि स्मृति)

  - (अष्टादशस्मृति ग्रन्थ पृष्ठ - ६ - पं.श्यामसुंदरलाल त्रिपाठी- मूल संस्करण)

अर्थात - ब्राह्मणो को अग्निहोत्र(हवन), तपस्या , सत्य में तत्परता , वेद की आज्ञा का पालन, अतिथियों का सत्कार और वश्वदेव ये सब इष्ट कर्म के अन्तर्गत आते है। ब्राह्मणो को बावड़ी, कूप, तालाब इत्यादि तालाबो का निर्माण, देवताओं के मंदिरों की प्रतिष्ठा जैसे शिल्पादि कर्म , अन्नदान और बगीचों को लगाना जिससे मोक्ष की प्राप्ति होती है ऐसे कर्म पूर्त कर्म है। 

उपर्युक्त, सभी अकाट्य प्रमाणो से ये सिद्ध होता है कि ब्राह्मणो के सिर्फ षटकर्म जैसे इष्टकर्म ही नहीं है अपितु, शिल्पकर्म जैसे पूर्तकर्म भी है जिनमें बावड़ी, कूप, तालाब इत्यादि तालाबो का निर्माण, देवताओं के मंदिरों के निर्माण एवं प्रतिष्ठा जैसे कर्म शिल्पकर्म के अन्तर्गत आते है जिसके करने से मोक्ष की प्राप्ति होती है जो सनातन धर्म का अंतिम और सर्वोच्च लक्ष्य है। पूर्तकर्म (शिल्पादि कर्म) का उल्लेख अथर्ववेद में भी आया है। 

महर्षि पतंजलि ने शाब्दिक ज्ञान को मिथ्या कहा है। कल्प के व्यावहारिक ज्ञाता को ही ब्राह्मण कहा जाता है। क्योंकि उसी वेदांग कल्प के शुल्ब सूत्र से शिल्पकर्म की उत्पत्ति हुई है। वेदांग ज्योतिष की संहिता स्कंध से वास्तुकला की उत्पत्ति हुई हैं। ब्रह्मा जी ये सृष्टि को अपनी सर्जना से कल्पित अर्थात निर्मित करते है उन्हीं ब्रह्मा जी की सृजनात्मक कल्पना शक्ति जिसमें होती है वहीं ब्राह्मण कहलाता है। सर्जनात्मक विधा ही निर्माण अर्थात शिल्पकर्म कहलाती है। 

ब्रह्मा जी का प्रमुख कर्म है सृजन अर्थात निर्माण इसी के कारण इनका पद 'ब्रह्मा ' है। ब्रह्मा जी का एक दिन और एक रात को ' कल्प ' कहते हैं। कल्प का एक अर्थ होता है यज्ञ। वेदांग कल्प के शुल्ब सूत्र से शिल्पकर्म की उत्पत्ति हुई हैं। वेदांग कल्प से शिल्पकर्म की उत्पत्ति होने के कारण शिल्पकर्म भी यज्ञ सिद्ध होता हैं। निर्माण के संदर्भ में यज्ञशाला या शाला का निर्माण का उल्लेख वेदो के साथ-साथ अन्य शास्त्रों में भी बहुत से स्थानों पर है। हम आपके समक्ष अथर्ववेद का एक ऐसा ही उदाहरण देते हैं जिसमें शाला य यज्ञशाला के निर्माण को ब्राह्मणों द्वारा बताया गया है ;

*ब्रह्मणा शालां निमितां कविभिर्निमितां मिताम् ।*

*इन्द्राग्नी रक्षतां शालाममृतौ सोम्यं सदः ॥*

     - (अथर्ववेद कांड -९, सूक्त - ३, मंत्र - १९)

अर्थात - ब्रह्मशिल्प विद्या को जानने वाले ब्राह्मणों ने शाला (यज्ञशाला) का निर्माण किया और सह विद्वानों ने इस निर्माण के नापतोल में सहायता की हैं। सोमरस पीने के स्थान पर बैठे हुए इंद्रदेव और अग्नि देव इस शाला की रक्षा करें। 


सभी को यह स्मरण रहे कि अथर्ववेद का उपवेद अर्थवेद अर्थात स्थापत्यवेद या कहें शिल्पवेद है उपर्युक्त मंत्र अथर्ववेद का है जिसमें अथर्ववेद को जानने वाले ब्रह्मशिल्पी ब्राह्मणों ने शाला या यज्ञशाला का निर्माण किया। अथर्ववेद के अनुसार आंगिरस ब्राह्मण अर्थात अथर्ववेदीय ब्राह्मण परमात्मा के मुख समान हैं क्योंकि , शास्त्रों में अथर्ववेद को परमात्मा का मुख कहा गया हैं। अथर्ववेद के ज्ञाता को यज्ञ में सर्वोच्च पद 'ब्रह्मा' का प्राप्त होता हैं। ब्रह्मशिल्पी विश्वकर्मा वैदिक ब्राह्मण कुल के ब्राह्मण अथर्ववेद का उपवेद स्थापत्यवेद (शिल्पवेद) होने के कारण 'अथर्ववेदीय विश्वकर्मा वैदिक ब्राह्मण ' भी कहलाते हैं।

वेदों में अथर्ववेदीय ब्राह्मणों की महिमा का अभूतपूर्व वर्णन है।

अथर्ववेद में विश्वकर्मा शिल्पी ब्राह्मणों को यज्ञवेदियों (यज्ञकुण्डों) का निर्माण करके यज्ञ का विस्तार करने वाला अर्थात यज्ञकर्ता कहा गया है;

*यस्यां वेदिं परिगृहणन्ति भूम्यां यस्यां यज्ञं तन्वते विश्वकर्माण:।*

*यस्यां मीयन्ते स्वरव: पृथिव्यामूर्ध्वा: शुक्रा आहुत्या: पुरस्तात् ॥* *सा नो भूमीर्वर्धयद् वर्धमाना ॥*

        - (अथर्ववेद कांड-१२ , सूक्त-१, मंत्र-१३)

अर्थात - जिस भूमि पर सभी ओर वेदिकाऍ (यज्ञकुण्डों) का निर्माण करके विश्वकर्मादि(ब्रह्मशिल्पी ब्राह्मण) यज्ञ का विस्तार करके यज्ञ करते हैं। जहाँ शुक्र (स्वच्छ या उत्पादक) आहुतियों के पूर्व यज्ञीय आधार स्थापित किए जाते हैं तथा यज्ञीय उद्घोष होते हैं। वह वर्धमान भूमि हम सब का विकास करे। 


उपर्युक्त, सभी अथर्ववेद के प्रमाणों से यह सिद्ध होता है कि शिल्प विद्या से यज्ञ वेदियों के निर्माण का कर्म ब्राह्मणों का ही है। उसके उपरांत वे ही यज्ञ भी करते हैं इसलिए शिल्प विद्या को ब्रह्मशिल्प विद्या भी कहा जाता है। इन अकाट्य वैदिक प्रमाणों से शिल्पकर्म ब्राह्मण कर्म सिद्ध होता है और इसको करने वाले ब्रह्मशिल्पी ब्राह्मण अथवा अथर्ववेदीय विश्वकर्मा वैदिक ब्राह्मण कहलाते हैं।

ब्रह्मस्वरूप अथर्ववेद में ब्राह्मणों को अग्नि के समान तेजस्वी और सोम का संबंधी और इन्द्र को ब्राह्मणों के श्राप को पूर्ण करने वाला बताया हैं ; 

*न ब्राह्मणे हिन्सितव्यो अग्नि: प्रियतनोरिव ।*

*सोमोह्यस्य दायाद इन्द्रो अस्याभिशस्तिपा: ॥*

    - (अथर्ववेद कांड-५, सूक्त-१८, मंत्र-६)

अर्थात - जिस प्रकार अपने शरीर को कोइ नष्ट नहीं करना चाहता, उसी प्रकार अग्नि के समान तेजस्वी ब्राह्मण का नाश भी नहीं करना चाहिए। सोम ब्राह्मणों का संबंधी होते है और इंद्र ब्राह्मणों के शाप को पूर्ण करते है। 


सभी को ये भी विदित रहे अथर्ववेद का उपवेद अर्थवेद या शिल्पवेद हैं अर्थात ब्रह्मशिल्पी विश्वकर्मा वैदिक ब्राह्मणों का अथर्ववेद से सीधा संबंध हैं। अंगिरा वंशीय अथर्ववेदीय ब्राह्मणों के लिये ब्रह्म स्वरूप अथर्ववेद (ब्रह्मवेद) में एक कथन हैं जो परब्रह्म के मुख समान कहा गया हैं। इसलिये अथर्ववेद का वाक (शब्द) ब्रह्मवाक के समान हैं ; 

*ये बृहत्सामानमाअंगीरसमार्पयन् ब्राह्मणं जना: ।* *पेत्वस्तेषामुभयादमविस्तोकान्यावयत्॥*

    - (अथर्ववेद कांड-५ ,सूक्त-१९ , मंत्र-२)

अर्थात - जो लोग बृहतसाम वाले (वेदाभ्यासी) आंगिरस ब्राह्मणो अर्थात अंगिरा वंशीय अथर्ववेदीय ब्राह्मणो को सताते रहें उनको हिंसा करने वाले अर्थात हिंसक पशुओं एवं काल ने अपने पाश में लेकर जबड़े में पीस डाला। 


पांच प्रकार के शिल्पकर्म में निपुण ब्राह्मणों को पंचशिल्पी (लौहकार,काष्ठकार,ताम्रकार,मूर्तिकार,स्वर्णकार) या पांचाल ब्राह्मण कहा जाता हैं। इसका एक संदर्भ वैदिक पांचाल महाजनपद से संबंधित ब्राह्मणों को पांचाल ब्राह्मण कहा जाता है। परंतु, मूल रूप से पंचशिल्प कर्मों में निपुण ब्राह्मणों को ही संपूर्ण भारतवर्ष में पांचाल ब्राह्मण कहा जाता है।

वराह महापुराण में कई श्लोकों में प्रत्यक्ष रूप से पांचाल के साथ ब्राह्मण शब्द प्रयोग हुआ हैं ; 

*पंचानां तु कनिष्ठो यः पंचालो ब्राह्मणात्मजः ।।*

*वाणिज्यभाण्डमादाय समूहस्य प्रसंगतः ।।*

    - (वराह महापुराण अध्याय - १७६, श्लोक - १)

अर्थात - जो ब्राह्मण का पुत्र पांचाल है वो पाँच पुत्रों में से कनिष्ठ पुत्र है , जिसने वाणिज्यकर्म में अपने आप को नियोजित किया है ।

*किं करोषि दिवारात्रौ ब्रूहि त्वं पृच्छतो मम ।।*

*पांचालो ब्राह्मणसुतो वाणिज्यं च समाश्रितः ।।* 

   - (वराह महापुराण अध्याय - १७६,श्लोक - १६)

अर्थात - (तीर्थ स्नान करने हेतु आए सुमंतु नामक एक आदमी पूछता है कि ) "रात दिन यही रहके आप क्या कर रहे है , आप कौन है ! तब पांचाल ने कहा मैं पांचाल ब्राह्मण का पुत्र हूँ और यहाँ पर अपना व्यापार करता हूँ ।


पद्मपुराण में पांचाल ब्राह्मणों को सर्व शास्त्रों का ज्ञाता कहा गया है ;

*पंचाल इति लोकेषु विश्रुतः सर्वशास्त्रवित्॥*

 (पद्मपुराण/खण्डः१(सृष्टिखण्ड)/अध्याय-१०,श्लोक - ११६)

अर्थात - पांचाल (पांचाल ब्राह्मण) जो इस लोक में सभी शास्त्रों के विद्वान के रूप में जाने जाते हैं। 


उपर्युक्त, वराहपुराण के श्लोकों से ये प्रमाणित होता है कि वहाँ पर पांचाल शब्द ब्राह्मण बोधक है और पांचाल को पांचाल ब्राह्मण का पुत्र कहा गया है। साथ ही पद्मपुराण के प्रमाण से ये सिद्ध होता है कि पांचाल ब्राह्मण सभी शास्त्रों का ज्ञाता है। ब्राह्मणों के प्रसिद्ध ग्रंथ ब्राह्मणोंत्पत्तिमार्तंड (पृष्ठ ५६२ से ५६८) एवं ब्राह्मणोंत्पत्ति दर्पण (पृष्ठ ३५८ से ३६१) आदि ग्रंथों में पांचाल ब्राह्मणों का प्रामाणिक वर्णन हैं और इन्हें ब्राह्मणों के षटकर्मों का भी अधिकार दिया गया हैं। इन्हीं पांचाल ब्राह्मणों को विराट संदर्भ में विश्वकर्मा वैदिक ब्राह्मण कहा जाता है। 


देवशिल्पी त्वष्टा प्रजापति विश्वकर्मा देवताओं के आचार्य हैं ऐसे अनेकों शास्त्रों में वर्णित है वायुपुराण एवं स्कंदपुराण में भी उनके ब्रह्मशिल्प वास्तु कर्मों को धारण करने वाले जो उनके पुत्र समान हैं उनको भी उन्हीं के समान आचार्य अर्थात ब्राह्मण माना गया है ; 

*देवाचार्यस्य महतो विश्वकर्मस्य धीमतः।*

*विश्वकर्मात्मजश्चैव विश्वकर्ममयः स्मृतः॥*

   - (वायुपुराण, अध्यायः २२, श्लोक - २०)

  अर्थात - महान और धीमान अर्थात बुद्धिमान विश्वकर्मा देवताओं के आचार्य (गुरु) हुए और उनके कर्मों को धारण करने वाले पुत्र भी उन्हीं के समान गुणों वाले हुए। 

उपर्युक्त, वायुपुराण के प्रमाणों से भी से भी ब्रह्मशिल्प वास्तु को धारण करने वाले आचार्य ब्राह्मण सिद्ध होते हैं। 


*देवाचार्यस्य तस्येयं दुहिता विश्वकर्मणः।*

*सुरेणुरिति विख्याता त्रिषु लोकेषु भामिनी ॥*

  - (स्कन्दपुराण/खण्डः ७ (प्रभासखण्डः)/प्रभासक्षेत्र माहात्म्यम्/अध्यायः ११/श्लोक - ७५)

अर्थात - देवताओं के आचार्य विश्वकर्मा की सुंदर पुत्री जो है वो तीनों लोकों में सुरेणु के नाम से प्रसिद्ध है।  


*तस्मिन्नेव ततः काले शिल्पाचार्यो महामतिः ।*

*विश्वकर्मा सुरश्रेष्ठः कृष्णस्य प्रमुखे स्थितः ।।*

 -(हरिवंशपुराण/पर्व २(विष्णुपर्व)/अध्यायः ०५८,श्लोक -२२) 

अर्थात - उसी क्षण देवताओं में श्रेष्ठ महान बुद्धिजीवी देवताओं के शिल्प के आचार्य विश्वकर्मा जी भगवान कृष्ण के समक्ष आ प्रकट हुए।


स्कंदपुराण के वैष्णव खंड में एक कथा में उल्लेख आया हैं कि एक प्रासाद अर्थात महल का निर्माण ब्रह्मशिल्पी ब्राह्मणों ने किया हैं ; 

*चतुर्थे दिवसे विप्राः प्रासादोऽभूदनुत्तमः।*

*बहुकालप्रसाध्योऽपि महिम्ना देवशिल्पिनः॥*

 (स्कन्दपुराण/खण्ड-२(वैष्णवखण्ड)अध्याय-१६, श्लोक-२१)

अर्थात - चौथे दिन ब्राह्मणों ने एक उत्कृष्ट महल का निर्माण किया, जो देवताओं के शिल्पी की महिमा से लंबे समय तक शोभायमान रहा। 


सनातनी शास्त्रों में ज्ञान के रूप में वेद और विज्ञान के रूप में शिल्प वर्णित हैं। सभी को ये विदित रहे ब्रह्मस्वरूप अथर्ववेद का उपवेद अर्थवेद या शिल्पवेद ही हैं। विज्ञान एक व्यापक विषय हैं। यज्ञ के पीछे भी एक विज्ञान ही हैं इसलिए यज्ञ को श्रेष्ठतम कर्म कहा गया हैं। शिल्प विज्ञान भी एक प्रकार का यज्ञ ही हैं। 

शतपथ ब्राह्मण ग्रन्थ १/७/१/५ स्पष्ट में कहा गया है कि 

 *यज्ञो वै श्रेष्ठतमं कर्म:* 

अर्थात - यज्ञ ही मनुष्यों का श्रेष्ठतम कर्म है।

अब हम आपको वाल्मीकि रामायण का एक श्लोक का उदाहरण देकर शिल्पियो द्वारा किये यज्ञकर्म अर्थात श्रेष्ठकर्म का वर्णन करेंगे ;

*न चावज्ञा प्रयोक्तव्या कामक्रोधवशादपि ।*

*यज्ञकर्मसु ये व्यग्राः पुरुषाः शिल्पिनस्तथा ॥*

*तेषामपि विशेषेण पूजा कार्या यथाक्रमम् ।*

*ये स्युः सम्पूजिताः सर्वे वसुभिर्भोजनेन च ॥*

   - (वाल्मीकि रामायण बालकाण्ड सर्ग - १३, श्लोक -१५-१६)

अर्थात - जो मनुष्य यज्ञादि कर्मों में सावधान है ऐसे शिल्पकार (ब्रह्मशिल्पी) लोगों का काम, क्रोध, भय तथा किसी भी प्रकार से अपमान न करें अपितु , उनका धनादि पदार्थ व अनेक विधि भोजनादि से विशेषकर पूजन करें।

वाल्मीकि रामायण मे भी शिल्पकर्म को ब्राह्मण कर्म माना गया है ;

*इष्टकाश्च यथान्यायं कारिताश्च प्रमाणतः।*

*चितोऽग्निर्ब्राह्मणैस्तत्र कुशलैः शुल्बकर्मणि॥* 

 - (वाल्मीकि रामायण बालकाण्ड सर्ग - १४,श्लोक -२८)

अर्थात - यज्ञ हेतु अग्निकुंड में ईंटें नियम और मानकों के अनुसार बनाई गई थीं। शुल्ब-सूत्र से उत्पन्न शिल्पकर्म मे निपुण ब्राह्मणों द्वारा इन ईंटो से अग्निकुंड बनाकर अग्नि स्थापित की गईं। 

*स चित्यो राजसिंहस्य संचितः कुशलैर्द्विजैः। *

*गरुडो रुक्मपक्षो वै त्रिगुणोऽष्टादशात्मकः ॥*

 - (वाल्मीकि रामायण बालकाण्ड सर्ग - १४, श्लोक - २९)

अर्थात - इस प्रकार राजसिंह महाराज दशरथ के यज्ञ मे कुशल ब्राह्मणों (ब्रह्मशिल्पी ब्राह्मणों) ने स्वर्ण के ईंटों से पंख बना अठारह प्रस्तार का एक गरुण बनाया। 

यद्यपि , यज्ञवेदी अर्थात यज्ञकुंड शिल्पकर्म से ही निर्मित होता है अतः इन यज्ञकुंडो को निर्मित करने वाले ब्राह्मणों अर्थात शिल्पियों को द्विज अर्थात ब्राह्मण ही कहा गया है। 


सर्वप्रथम, हमें ये ज्ञात होना चाहिए कि शिल्पकर्म विज्ञान के अंतर्गत ही आता है जो कि आर्य समाज के संस्थापक महर्षि दयानंद सरस्वती ने भी माना है। उन्होंने शिल्पकर्म को यज्ञकर्म माना है। सत्यार्थ प्रकाश तृतीय समुल्लास में मनुस्मृति के अध्याय २ श्लोक २८ में *महायज्ञैश्च यज्ञैश्च ब्राह्मीयं क्रियते तनुः।* 'महायज्ञैश्च यज्ञैश्च' का एक अर्थ *शिल्पविद्या* किया है। सत्यार्थप्रकाश नामक ग्रन्थ में तृतीयसमुल्लास में उन्होंने मनुस्मृति के अध्याय २, श्लोक २८ को उधृत करते हुए लिखा है कि " सकल विद्या पढ़ने पढ़ाने , ब्रह्मचर्य , सत्यभाषणादि नियम पालने , अग्निहोत्रादि होम, सत्य का ग्रहण, असत्य का त्याग और सत्य विद्याओं का दान देने, वेदस्थ कर्मोपासना, ज्ञान , विद्या के ग्रहण , पक्षेष्ट्यादि करने , सुसन्तानोत्पत्ती , ब्रह्म , देव , पितृ , वैश्वदेव और अतिथियों के सेवनरूप पंच महायज्ञ और अग्निष्टोमादि तथा *शिल्पविद्याविज्ञानादिर यज्ञों* (शिल्पकर्म) के सेवन से इस शरीर को ब्राह्मी अर्थात वेद और परमेश्वर की भक्ति का आधार रूप *ब्राह्मण* का शरीर बनता है। इतने साधनों के बिना ब्राह्मण शरीर नहीं बन सकता। " इस श्लोक के अर्थ में महर्षि दयानंद ने ये सिद्ध किया है कि शिल्प विज्ञान के धारण के बिना मनुष्य ब्राह्मण नहीं कहला सकता है। 

भविष्य पुराण में शिल्पकर्म एवं वेदो के अध्ययन को ब्राह्मणों का लक्षण बताया गया है। 

*आचारहीनान्न पुनंति वेदा यद्यप्यधीताः सह षद्भिरङ्गैः।*

*शिल्पं हि वेदाध्ययनं द्विजानां वृत्तं स्मृतं ब्राह्मणलक्षणं तु।* -(भविष्यपुराण ब्राह्मपर्व-१, अध्याय - ४१,श्लोक - ७)

अर्थात - वेदों का अध्ययन छ: अंगों द्वारा होते हुए भी सदाचार से रहित व्यक्ति को शुद्ध नहीं करता। शिल्पकर्म के लिये वेदों का अध्ययन द्विज रूपी ब्राह्मणों के कर्म एवं लक्षण हैं।


अन्य पुराणों में भी शिल्पकर्म को करने वाले को ब्राह्मण कहा गया। जिसका प्रमाण ब्रह्मवैवर्तपुराण में अंकित है जिसमें कारू (बढ़ई) कर्म अर्थात शिल्पकर्म को ब्राह्मण कर्म के रूप में वर्णन किया गया है;

*स एव ब्राह्मणो भूत्वा भुवि कारुर्बभूव ह ।*

*नृपाणां च गृहस्थानां नानाशिल्पं चकार ह ।।*

*शिल्पं च कारयामास सर्वेभ्यः सर्वतः सदा ।*

*विचित्रं विविधं शिल्पमाश्चर्य्यं सुमनोहरम् ।।*

   - (ब्रह्मवैवर्तपुराण/खण्डः १ (ब्रह्मखण्डः)/अध्यायः १०,श्लोक - ६८-६९)

अर्थात - वह ब्राह्मण पृथ्वी पर कारू अर्थात बढ़ई बना।

उन्होंने राजाओं के घरों के लिए विभिन्न शिल्प भी बनाए।

उन्होंने हर स्थान पर सभी के लिए शिल्प भी बनाए। उसका शिल्प कौशल अद्भुत एवं रमणीय था। 


ऋग्वेद में शिल्पी ब्राह्मणों को यज्ञकर्ता के साथ यज्ञपात्रों का अपनी ब्रह्मशिल्प विद्या द्वारा निर्माणकर्ता एवं विद्वान कहकर रक्षा करने के लिये देवता स्वरूप मानकर आवाहन किया गया हैं जो प्रमाण निम्न है ;

*ये देवानां यज्ञिया यज्ञियानां मनोर्यजत्रा अमृता ऋतज्ञा:।* 

*ते नो रासन्तामुरुगायमद्य यूयं पात स्वस्तिभिः सदा नः।*

 -( ऋग्वेद- मण्डल- ७,सूक्त-३५,मन्त्र-१५)

अर्थात - जो शिल्प रुपात्मक शिल्पी देव यज्ञ को जानने वाले हैं उसके यज्ञपात्र, देवों के भी यज्ञपात्र (यज्ञकुंड,यज्ञपात्र आदि) निर्मित करने वाले हैं एवं मनु के जो यजनीय हैं, जो मरणरहित एवं सत्य जानने वाले हैं, वे आज हमें विशाल कीर्ति वाला पुत्र दें एवं कल्याणसाधनों से सदा हमारी रक्षा करें।


वेद ज्ञान है उन्हीं वेदों के अंतर्गत आने वाला जो प्रमुख विषय हैं ' शिल्प ' वह विज्ञान है। शास्त्रों में अनेकों स्थानों पर शिल्प को विज्ञान शास्त्र कहा गया है। आदिकाल से ब्राह्मणों का मूल कर्म विज्ञान ही रहा है इसलिए ब्राह्मण वैज्ञानिक या ज्योतिषाचार्य भी कहलाते हैं। ज्योतिष भी सर्वोच्च विज्ञान ही है ज्योतिष की संहिता स्कंध से ही वास्तु विज्ञान की उत्पत्ति हुई है और वेदांग कल्प के शुल्व-सूत्र से शिल्प विज्ञान की उत्पत्ति हुई है।

शब्दकल्पद्रुम संस्कृत का आधुनिक युग का एक महाशब्दकोश है। जिसमें विज्ञान शब्द की व्याख्या करते हुए निम्न उल्लेख हैं ; 

*मोक्षे धीर्ज्ञानमन्यत्र विज्ञानं शिल्प-शास्त्रयोः।* (शब्दकल्पद्रुम)

अर्थात - मोक्ष अर्थात मुक्ति में बुद्धि ज्ञान है और कहीं ज्ञान शिल्प कौशल और शास्त्र का विज्ञान है।

बृहस्पति स्मृति में देवगुरु बृहस्पति ने शिल्प को विज्ञान कहा हैं यथा ;

*विज्ञानं उच्यते शिल्पं हेमरूप्यादिसंस्कृतिः।*

 (बृहस्पति स्मृति - १,१५.७)

अर्थात - विज्ञान को शिल्प, सोना, चांदी और अन्य संस्कृतियां कहा जाता है।

आज कलयुग में लोग ज्ञान को विज्ञान से अलग समझने लगे है जबकि वेद ज्ञान है तो शिल्प विज्ञान है। बिना इन दोनों के कोई पूर्ण ब्राह्मण बन ही नहीँ सकता।

भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में ब्राह्मणों के लक्षण में ' विज्ञान ' (शिल्पादि कर्म) का वर्णन है जो निम्न है ;

*शमो दमस्तप: शौचं क्षान्तिरार्जवमेव च |*

*ज्ञानं विज्ञानमास्तिक्यं ब्रह्मकर्म स्वभावजम् ||*

  - (श्रीमद्भागवत गीता- अध्याय - १८, श्लोक - ४२)

अर्थात - मनका निग्रह करना इन्द्रियों को वशमें करना, धर्मपालन के लिये कष्ट सहना, बाहर-भीतर से शुद्ध रहना, दूसरों के अपराध को क्षमा करना, शरीर, मन आदि में सरलता रखना, वेद, शास्त्र आदि का ज्ञान होना, विज्ञान अर्थात शिल्पादि कर्म को व्यावहारिक रूप से करना और परमात्मा, वेद आदि में आस्तिक भाव रखना , ये सब-के-सब ब्राह्मण के स्वाभाविक लक्षण एवं कर्म हैं।

उपर्युक्त , सभी शास्त्रों के प्रमाणों से ये सिद्ध होता हैं कि शिल्प एक विज्ञान हैं और यज्ञ समान श्रेष्ठ कर्म हैं। ज्ञान के साथ अगर ब्राह्मण विज्ञान अर्थात शिल्पादि का ज्ञान नहीं रखता तो वो पूर्ण ब्राह्मण नहीं बन सकता हैं। इसलिये ब्राह्मणों के लिये शिल्प , वास्तु जैसे वैज्ञानिक कर्म आवश्यक हैं। 

      

*विश्वकर्मा वैदिक ब्राह्मणों के विभिन्न प्रसिद्ध विद्वानों की पुस्तकों से प्रमाण*

जगत प्रसिद्ध महाविद्वान आचार्यों , पंडितो एवं कुछ अन्य विदेशी लेखकों ने अपने ग्रंथो या पुस्तकों में भी विश्वकर्मा शिल्पी ब्राह्मणों की महिमा एवं श्रेष्ठता का उल्लेख किया है। शिल्प को श्रेष्ठ कर्म और उन शिल्प कर्मों को करने वालों को ब्राह्मण भी स्वीकार किया गया है जिसके प्रमाण निम्न हैं ; 

१)' ब्राह्मणोत्पत्तीमार्तण्ड ' ग्रंथ जो ब्राह्मणों की जगत प्रसिद्ध पुस्तक है उसके लेखक पं.हरिकृष्ण शास्त्री जी थे। यह पुस्तक लगभग 100 वर्ष पुरानी है। जिसमें समस्त विश्व के मुख्य ब्राह्मणों का उल्लेख है उसमें पृष्ठ ५६२ - ५६८ तक विश्वकर्मा पांचाल ब्राह्मणों का उल्लेख ' अथ पांचालब्राह्मणोंत्पत्ती प्रकरण ' बताकर दिया गया है। जिसमें शिल्प कर्म करने वाली पांचों शिल्पी उपजातियों जिसमें लौहकार(लोहार) , काष्ठकार(बढ़ई), ताम्रकार, शिल्पकार औऱ स्वर्णकार को ब्राह्मण मानकर उन्हें ब्राह्मणों के प्रमुख कर्म षटकर्म एवं अन्य ब्राह्मण कर्मो के करने का अधिकारी कहा गया है। 

२) 'ब्राह्मणोंत्पत्ति दर्पण ' नामक पुस्तक जिसके लेखक डॉ पंडित मक्खनलाल मिश्र 'मैथिल ' जी है। इस पुस्तक के प्रमाणों की मुख्य बात यह है कि यह पुस्तक आदिगुरु शंकराचार्य द्वारा स्थापित चार पीठों में प्रथम पीठ शृंगेरी शारदापीठ और वहां के शंकराचार्य द्वारा सत्यापित है। उस संस्थान का नाम ' श्री श्री जगद्गुरु शङ्कराचार्य महासंस्थानम् दक्षिणाम्नाय श्री शारदापीठम् शृंगेरी ' है। जिनकी पुस्तक में विश्वकर्मा पांचाल ब्राह्मण उत्पत्ति में पृष्ठ क्रमांक ३५८ से ३६१ तक विश्वकर्मा पांचाल ब्राह्मणों की उत्पत्ति बताई गई है जिसमें स्पष्ट रूप से यह उल्लेख आया है कि विश्वकर्मा पांचाल ब्राह्मण समाज मूल रूप से ब्राह्मण समाज है और इन्हें षटकर्म के साथ-साथ ब्रह्म यज्ञ, देव यज्ञ, पितृ यज्ञ ,भूत यज्ञ और जप यज्ञ का पूर्ण रूप से अधिकार है। 

३) ' जाति भास्कर ' जिसके लेखक प्रसिद्ध ब्राह्मण विद्वान पं.ज्वालाप्रसाद मिश्र ने अपनी पुस्तक ' के पृष्ठ २०३-२०७ में शिल्पकर्म को ब्राह्मणों का कर्म मानते हुए एवं विश्वकर्मा पांचाल ब्राह्मणों को ब्राह्मण जाति कुल का स्वीकार करते हुए उन्हें षटकर्म अर्थात यज्ञ करना , यज्ञ कराना , वेद पढ़ना , वेद पढ़ाना , दान देना औऱ दान लेने के अधिकार के साथ अन्य ब्राह्मणों के कर्म करने का अधिकारी माना है।

४) 'ब्राह्मणवंशेतिवृत्तम' नामक प्रसिद्ध पुस्तक जिसके लेखक वेदरत्न पं.परशुराम शास्त्री विद्यासागर थे। जिसमें मुख्य ब्राह्मणों का प्राचीन एवं अर्वाचीन इतिहास का उल्लेख है। इसमें भी विश्वकर्मा वैदिक ब्राह्मणों को मूलरूप से ब्राह्मण माना गया है। आप लोग इसमें जांगिड़ ब्राह्मण (विश्वकर्मा ब्राह्मण) का विस्तृत परीचय पृष्ठ ११६ - से १३० में हैं इसे पढ़ सकते हैं। इसी प्रसिद्ध पुस्तक में पृष्ठ १८२ से १८६ के बीच शिल्प कर्म करने वाले मत्स्य पुराण के अनुसार १८ शिल्पकर्म के उपदेशक ऋषि ब्राह्मणों का भी उल्लेख है। त्वष्टा विश्वकर्मा अर्थात देवों के आचार्य देवशिल्पी विश्वकर्मा का भी विस्तृत परिचय है। साथ ही इसमें वैदिक शिल्पी ब्राह्मण अर्थात रथकार ब्राह्मण ,पांचाल ब्राह्मण तक्षा ब्राह्मण आदि शिल्पियों को ब्राह्मण मानते हुए उनका प्रमाण है।  

५) ' ब्राह्मण गोत्रावली ' नामक पुस्तक जिसके लेखक ज्योतिषाचार्य पंडित राजेंद्र देवलाल हैं जो उत्तराखंड से छपी थी। इस पुस्तक के पृष्ठ ११४ से ११७ के बीच विश्वकर्मा शिल्पी ब्राह्मणों में जांगिड़ ब्राह्मणों की उत्पत्ति एवं पांचाल ब्राह्मणों की उत्पत्ति का वर्णन है। 

६) ' वंश मल्लिका ' नामक ग्रंथ जिसके रचयिता प्रसिद्ध विद्वान पंडित मन्नूलाल शर्मा थे। यह पुस्तक भी लगभग ८० से १०० वर्ष पुरानी है। इसके बहुत से पृष्ठों पर इनका प्रमाण भरा हुआ हैं। इसमें विश्वकर्मा वैदिक ब्राह्मणों के अनेक वर्गों का उल्लेख है। जैसे विश्वकर्मा ब्राह्मण , रथकार ब्राह्मण, पांचाल ब्राह्मण, जांगिड़ ब्राह्मण, धीमान ब्राह्मण , आचार्य ब्राह्मण, ओझा या झा, मैथिल ब्राह्मण आदि। इस पुस्तक में इनकी शास्त्रो के अनुसार उत्पत्ति ,वंशावली एवं गोत्रावली का विस्तृत वर्णन है। इस पुस्तक में विश्वकर्मा वैदिक ब्राह्मणों को वेदों के अनुसार एवं अन्य शास्त्रों के अनुसार सभी प्रकार के ब्राह्मणों के मूल कर्म का पूर्ण अधिकारी शास्त्रीय प्रमाणों के आधार पर बताया गया है। 

७) (History of Aryan rule in India, पृष्ठ ८१ पर लिखा है)चन्द्र गुप्त विक्रमादित्य के समय तक भी शिल्पी ब्राह्मणों को कष्ट पहुंचने पर दंड दिया जाता था, इनकी अदालतें भी अलग थी। शिल्पी ब्राह्मणों की रक्षा करना राजा का विशेष कर्तव्य था। इसी पुस्तक के पृष्ठ १९-२० पर लिखा है कि शिल्पी ब्राह्मण यज्ञों के पुरोहित होते थे। इसी पुस्तक के पृष्ठ ७६ पर चाणक्य के लेख के आधार पर यह दिखाया है कि अन्य ब्राह्मण व शिल्पी ब्राह्मण एक साथ रहते थे। पूर्व दिशा में क्षत्रिय, पश्चिम में शूद्र, उत्तर में शिल्पज्ञ ब्राह्मण व अन्य ब्राह्मण रहते थे।

८) Journal of India Art and Industry by Pulny Andy में लिखा है कि प्राचीन काल में शिल्पी ब्राह्मणों को देव ब्राह्मण कहते थे। 

९) भारतवर्ष के एक प्रसिद्ध पंचांग जो काशी से प्रकाशित होता है जिसका नाम 'आदित्य पंचांग' है जिसके संपादक डॉ. पं.पारसनाथ ओझा एवं गणितज्ञ आचार्य विनय झा हैं जो भारतवर्ष के प्रसिद्ध ज्योतिषी भी हैं। उस पंचांग में विश्वकर्मा वैदिक ब्राह्मणों को अथर्ववेदीय ब्राह्मण बताकर जांगिड़ ब्राह्मण एवं पांचाल ब्राह्मण से संबोधित किया गया है। इसके पुराने संस्करण के पृष्ठ ४६ और नवीन संस्करण (२०२२-२३)के पृष्ठ ४४ पर प्रमाण देखा जा सकता हैं।

१०) भट्टोजि दीक्षित रचित व्याकरण के प्रसिद्ध ग्रँथ ' सिद्धांत कौमुदी ' के स्वरप्रकरण ६१ से ७१ के बीच ३८११ में रथकार शिल्पी को ' ब्राह्मण 'कहा गया हैं। *रथकारो नाम ब्राह्मण:* अर्थात रथकार ब्राह्मणों का एक नाम हैं। रथकार ब्राह्मण विराट संदर्भ में 'विश्वकर्मा वैदिक ब्राह्मण' कहलाते हैं।

११) काशिकावृत्ति प्राचीन व्याकरण शाखा का ग्रन्थ हैं इसके सम्मिलित लेखक जयादित्य और वामन हैं। काशिकावृत्ति/षष्ठोऽध्याय/द्वितीयपाद में भी स्पष्ट रूप से रथकारों अर्थात विश्वकर्मा वैदिक ब्राह्मणों को ब्राह्मण की संज्ञा प्राप्त हैं। *रथकारो नाम ब्राह्मणः* अर्थात - रथकार नाम ब्राह्मणों का है।

रथकार ब्राह्मण विराट संदर्भ में 'विश्वकर्मा वैदिक ब्राह्मण' कहलाते हैं।


वेदों में शिल्पी ब्राह्मणों के बोधक के रूप में विश्वकर्मा, आचार्य, शिल्पी , देवता , शर्मा, रथकार , तक्षा , स्थपती, वर्धकि, कर्मार आदि शब्द भी प्रयुक्त हुये है औऱ इन्हें वेदों के बहुत से मन्त्रों में इनकी ब्रह्मशिल्प विद्या के कारण इन्हें नमस्कार भी किया गया है। यजुर्वेद में ऐसा श्लोक आया है ;

 *नमस्तक्षम्यो रथकारेभ्यश्च वो नमो नमः।* 

 *कुलालेभ्य: कर्मारेभ्यश्च नमः॥* 

 - (यजुर्वेद अध्याय-१६, श्लोक-२७)

 *रथकारों रथं करोतीति तक्षणो विशेषणम् एव कर्मारा: लोहकारा..॥* (उवट भाष्य)

अर्थात - जो शिल्पी ब्रह्मशिल्प विद्या से रथों का निर्माण करते है उन्हें रथकार कहते है औऱ उस तक्षा का विशेषण ही है। अतः उस तक्षा (रथकार) को हमारा नमस्कार है। कर्मार कहते है लोहकार को अतः उसको भी हमारा नमस्कार है।

 

*वर्षाऋतु में रथकार शिल्पी ब्राह्मणों (विश्वकर्मा वैदिक ब्राह्मणों) को यज्ञ का विशेषाधिकार*

'*रथं करोतीति इति रथकार:* अर्थात जो शिल्पी ब्राह्मण ब्रह्मशिल्प विद्या से दिव्य रथों के निर्माण करते है उन्हें रथकार शिल्पी ब्राह्मण कहते हैं। रथकार शिल्पी ब्राह्मणों का शास्त्रो में विशेष महत्व हैं इन्हे देवता तक कहा गया हैं। ऋग्वेद अथर्ववेद आदि वेदों में कई मँत्रो के देवता ऋभू देवता हैं जिन्हें शास्त्रो में रथकार भी कहा गया हैं। वेदों के एक प्रसंग में वर्णन आया हैं कि ऋभू देवताओं ने अर्थात रथकार शिल्पी ब्राह्मणों ने एक ऐसा अद्भुत रथ बनाया था जों आकाश, पृथ्वी औऱ जल में समानरूप एवं गति से विचरण करता हैं। आप लोग वेदों में ऋग्वेद एवं अथर्ववेद में ऋभू सूक्त का अध्ययन कर सकते हैं जिसमें ऋभू देवताओं अर्थात रथकार शिल्पी ब्राह्मणों की महत्वता का अभूतपूर्व वर्णन है। सिद्धांत कौमुदि एवं काशिकावृत्ति नामक व्याकरण के ग्रंथों में इन्हीं रथकार ब्राह्मणों को ब्राह्मण स्वीकार करते हुये निम्न कथन का उल्लेख किया गया हैं ; *रथकारो नाम ब्राह्मण:* अर्थात रथकार ब्राह्मणों का एक नाम हैं। 

वेदांग कल्प के अंतर्गत बौधायन श्रोतसूत्र में रथकार शिल्पी ब्राह्मणों को अन्य ऋतुओ के साथ साथ वर्षा ऋतु में यज्ञ करने का विशेष अधिकार दिया है औऱ अन्य ब्राह्मणों को वसंत ऋतु में विशेष रूप से यज्ञ करने अधिकार दिया है औऱ क्षत्रियों को ग्रीष्म ऋतु में औऱ वैश्यों को शरद ऋतु में यज्ञ का विशेष अधिकार दिया है। 

प्रमाण देखें निम्न;

*अथात ऋतुनक्षत्राणामेव मीमाँ सा ऋतूनेवाग्रे व्याख्यास्यामोऽथ छन्दाँ सीति।*

*वसन्ते ब्राह्मणोऽग्निमादधीत ग्रीष्मे राजन्यः शरदि वैश्यो वर्षासु रथकार इति॥*

     - (बौधायनश्रौतसूत्रम्/प्रश्नः २४.१६)

अर्थात - अब ऋतु और नक्षत्रों के बारे में मीमाँसा किया जाएगा । यज्ञ के हेतु अग्नि का आधान करने के बारे में चर्चा करें तो प्रत्येक ऋतुओ में अलग अलग से नियम बताए गए है , जैसे *वसंत ऋतु में ब्राह्मण , ग्रीष्म काल में क्षत्रिय, शरद ऋतु में वैश्य लोग , वर्षाऋतु में रथकार ब्राह्मण (विश्वकर्मा वैदिक ब्राह्मण) को अग्नि का आधान करके यज्ञ करने के नियम बताए गए हैं।*

उपर्युक्त, प्रमाणों से कुछ लोगों को ये शंका हो सकती हैं कि रथकार शिल्पी ब्राह्मणों को ब्राह्मण वर्ण से अलग से वर्षाऋतु में यज्ञ का अधिकार शास्त्रो में किस कारण दिया गया हैं। ' रथकार शिल्पी ' ब्राह्मण वर्ण के अन्तर्गत आते हुए भी एक विशेष ब्राह्मण वर्ग हैं जिन्हें विशेष रूप से वर्षाऋतु में यज्ञ का अधिकार दिया गया हैं। वैसे तीनों वर्णों में कोई भी किसी भी ऋतु में यज्ञ कर सकता हैं रथकार शिल्पी ब्राह्मण भी। लेकिन यहाँ पर संदर्भ चार प्रमुख ऋतुओं से है इसलिए इनका विभाजन करके इन्हें विशेष अधिकार दिया गया हैं। 


वेदों में श्रेष्ठ वेद जिसे अथर्ववेद अर्थात ब्रह्मवेद कहा जाता है उसमें रथकार शिल्पी एवं कर्मार शिल्पी को धीवान अर्थात बुद्धिमान एवं मनीषी अर्थात विद्वान कहा गया है। 

*ये धीवानो रथकाराः कर्मारा ये मनीषिणः ।*

*उपस्तीन् पर्ण मह्यं त्वं सर्वान् कृण्वभितो जनान् ॥*

            - (अथर्ववेद कांड - ३, सूक्त - ५, मंत्र - ६)

अर्थात - हे पर्णमणे, ये जो धीवान अर्थात बुद्धिमान शिल्पी रथकार अर्थात जो दिव्य रथों का निर्माण करते हैं और कर्मारा अर्थात लौह आदि वैज्ञानिक ब्रह्मशिल्प कर्मो में जो मनीषी अर्थात विद्वान शिल्पी ब्राह्मण लोग लगे रहते है उनको परिचर्चा हेतु हमारे (राजा) समक्ष उपस्थित करें।  

यजुर्वेद में मेधावी एवं धैर्य पूर्ण कार्यों के लिए रथकार शिल्पी ब्राह्मण और तक्षा शिल्पी ब्राह्मण को उपयुक्त कहा गया है। रथकार एवं तक्षा को मेधावी एवं धैर्यवान कहा गया हैं। 

*मेधायै रथकारं धैर्याय तक्षाणाम्*... (यजुर्वेद - ३०/६) 

 अर्थात - बुद्धिमतायुक्त कार्य​ के लिए रथकार​​शिल्पी तथा धैर्य (युक्त कार्य​) के लिए तक्षा शिल्पी की सलाह लेनी चाहिए । 

यजुर्वेद में रथकार,तक्षा एवं कर्मार शिल्पी ब्राह्मणों को नमस्कार करके उनका वंदन किया गया हैं। 

*नमस् तक्षभ्यो रथकारेभ्यश् च वो नमो नमः कुलालेभ्यः कर्मारेभ्यश् च वो नमो नमो...* (यजुर्वेद अध्याय - १६,श्लोक - २७)

अर्थात - हे तक्षाओ, रथकारों एवं कर्मारा शिल्पीयों आपको नमस्कार हैं।

उपर्युक्त सभी प्रमाणों से रथकार, तक्षा औऱ कर्मारा शिल्पी ब्राह्मणों को वेद शास्त्रों में विशेष सम्मान दिया गया है उन्हें बुद्धिमान, मेधावी, धैर्यवान , मनीषी (विद्वान) कहां गया है। विशेष रुप से वेदांग ग्रंथ बौधायन श्रोतसूत्र में रथकार ब्राह्मणों अर्थात विश्वकर्मा वैदिक ब्राह्मणों को वर्षा ऋतु में विशेष रुप से यज्ञ का विशेषाधिकार दिया गया है। इससे यह सिद्ध होता है कि रथकार शिल्पी ब्राह्मणों का दिव्य रथों के निर्माण जैसे ब्रह्मशिल्प वैज्ञानिक कर्मों के अलावा ब्राह्मणों के षट्कर्म अर्थात यज्ञकर्म आदि कर्मों का भी अधिकार शास्त्रो के अनुसार वैदिककाल से प्राप्त है। इन्हीं रथकार ब्राह्मणों को विराट संदर्भ में विश्वकर्मा वैदिक ब्राह्मण कहा जाता है। 


मत्स्य पुराण में वास्तुशिल्प के १८ उपदेष्टा ऋषियों का वर्णन है जिन्होने वैदिक कर्मकाण्ड के साथ वास्तु शिल्पकर्म का भी ज्ञान दिया। जिनका वर्णन इसप्रकार है ;

*भृगुरत्रिर्वशिष्ठश्च विश्वकर्मा मयस्तथा।*

*नारदो नग्नजिच्चैव विशालाक्षः पुरन्दरः ।।* 

*ब्रह्माकुमारो नन्दीशः शौनको गर्ग एव च।*

*वासुदेवोऽनिरुद्धश्च तथा शुक्रबृहस्पती ।।* 

*अष्टादशैते विख्याता वास्तुशास्त्रोपदेशकाः।*

*सङ्क्षेपेणोपदिष्टन्तु मनवे मत्स्यरूपिणा ।।*

   - (मत्स्य पुराण -२५२/२-३-४)

अर्थात - मत्स्य रुपी श्री विष्णु भगवान् ने मनु को वास्तु शिल्प पढाया है और अठारह वास्तु शिल्प संहिता के रचने वाले मुनि श्रेष्ठ देव हैं -

१. भृगु, २. अत्रि, ३. वशिष्ठ, ४. विश्वकर्मा, ५. मय, ६ . नारद, ७. नग्नजित, ८. विशालाक्ष, ९ . इन्द्र, १०. ब्रह्मदेव, ११.स्वामी कार्तिकेय , १२. नन्दी, १३. शौनक, १४. गर्ग मुनि, 

१५. वासुदेव (कृष्ण), १६. अनिरुद्ध, १७. शुक्राचार्य, १८. बृहस्पति। 


यजुर्वेद में शिल्प विद्या में निपुण ब्राह्मणों को देवता और शिल्प विद्या को करने वालों को शर्मा (ब्राह्मण) या सुखदाता कहा गया है ; 

*ऋ॒क्सा॒मयोः॒ शिल्पे॑ स्थ॒स्ते वा॒मार॑भे॒ ते मा॑ पात॒मास्य य॒ज्ञस्यो॒दृचः॑।*

*शर्मा॑सि॒ शर्म॑ मे यच्छ॒ नम॑स्तेऽअस्तु॒ मा मा॑ हिꣳसीः॥*

      - (यजुर्वेद अध्याय - ४, श्लोक - ९)

अर्थात - हे शिल्प रूपी ऋक और साम के अधिष्ठाता देवताओं! हम यज्ञ में गाई गई ऋचाओं द्वारा आपका स्पर्श करते हैं। आप हमारी रक्षा कीजिए। आप हमारे आश्रय अर्थात सुखदाता हैं। आप हमें आश्रय (सुख) देने की कृपा करें। आप हमें कष्ट ना दें।

महीधर ने इसी श्लोक को अपने वेद भाष्य में शिल्पी ब्राह्मणों को देवता कहकर संबोधित करते हुये चातुर्य हुनर का नाम शिल्प कहा है।

*यथा-ऋक, साम अभिमाजी देवतयोः सम्बन्धिनी शिल्पे चातुर्ये लद् रुपे भवतः।।* - 

     (यजुर्वेद - अ- ४, श्लोक - ९ - महीधर भाष्य)  

अर्थात - ऋग्वेद तथा सामवेद के ज्ञाता देवताओं (शिल्पी ब्राह्मणों) के चातुर्य को सीखो। 

स्मृति धर्मशास्त्रों के अनुसार ब्राह्मणो के दस भेद उनके कर्मो के अनुसार होते है , जिसमें देवता ब्राह्मण , विप्र ब्राह्मण , द्विज ब्राह्मण , व्रात्य ब्राह्मण , शूद्र ब्राह्मण , चांडाल ब्राह्मण आदि है।  

इससे यह स्पष्ट है की वैदिक काल में सभी ब्राह्मणों के लिये शिल्पकर्म अनिवार्य था। उस समय ब्राह्मणों में कोई भेद भी नहीँ था सभी ब्राह्मण के साथ साथ उनकी श्रेष्ठ योग्यता के अनुसार शिल्पी कहलाते थे। वैदिक गुरुकुलों में वेद पढ़ना, वेद पढ़ाना ,शिल्प पढ़ना औऱ शिल्प पढ़ाना पाठ्यक्रम हुआ करता था। चौंसठ कलाओं में वास्तुकला सबसे प्रमुख कला होती थी। 

इसलिये वैदिक शास्त्रों में बहुत जगह ब्राह्मणों के सूचक के रुप में देवता , आचार्य , ब्राह्मण , विप्र , द्विज , शिल्पी , रथकार , तक्षा, स्थपती, मनीषी, धीमान , जांगीड, पाँचाल आदि शब्द प्रयोग हुये है। सभी शास्त्रीय , तार्किक एवं लेखकों की पुस्तको के प्रमाणों से शिल्पकर्म एवं वास्तुकर्म ब्राह्मण कर्म सिद्ध होता है। जो मनुष्य इन वैदिक, शास्त्रीय एवं तार्किक प्रमाणों को नहीं मानता है वो वेदों के अनुसार नास्तिक ही कहलाएगा।

''नास्तिकों वेद निंदक: ' 

ॐ नमो विश्वकर्मणे..🚩




        संकलक एवं लेखकर्ता

            पं.संतोष आचार्य

*अखंड विश्वकर्मा ब्राह्मण महासभा®(संपूर्ण भारत)*

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