वेद-शास्त्रो में परमात्मा विश्वकर्मा एवं देवाचार्य देवशिल्पी विश्वकर्मा की सर्वपूज्यता

वेद-शास्त्रो में परमात्मा विश्वकर्मा एवं देवाचार्य देवशिल्पी विश्वकर्मा की सर्वपूज्यता - 

साकार स्वरुप परम ब्रह्मा भगवान विराट विश्वकर्मा
साकार रूप आदि ब्रह्मा भगवान विराट विश्वकर्मा

देवाचार्य देवशिल्पी विश्वकर्मा


 यो विश्वं सर्वकर्म क्रियामाणस्य स विश्वकर्मा:||

अर्थात जो एकमात्र ब्रह्म परमात्मा समस्त संसार की उत्पत्ति से लेकर प्रलय के साथ समस्त कर्म करने की योग्यता रखता है उस परमेश्वर को 'विश्वकर्मा' कहा जाता है। इससे जुड़े निर्माण के कर्म को धारण करने वाले ब्रह्म शिल्पियों को विश्वकर्मा वैदिक ब्राह्मण कहते हैं। सर्वप्रथम , विश्वकर्मा की उपाधि परब्रह्म विराट पुरुष को प्राप्त हुई और इसी उपाधि से उनका वैदिक प्रचलित नाम विश्वकर्मा भी हुआ। इन्हीं ब्रह्म अर्थात परब्रह्म को सृष्टि की सबसे शाश्वत ध्वनि अर्थात नाद को भी कहा गया। उन्ही को शास्त्रों में विष्णु (सर्वव्यापक) , शिव (कल्याण), पशुपति , विराट, प्रजापति , हिरण्यगर्भ आदि ये सब नाम एवम् उपाधियाँ उसी विश्वकर्मा ब्रह्म अर्थात परब्रह्म परमात्मा की है। 


उन्ही विश्वकर्मा को सर्वदृष्टा, सर्वपालक, सर्वश्रेष्ठ औऱ सर्वस्तुत्य पिता कहा है। वे परमात्मा ही विश्वपति, विश्वरूप, नियामक, पालक, सभी यज्ञों के भोक्ता , स्वामी तथा धाता-विधाता कहे गए है। 

विश्वकर्मा विमना आद्विहाया धाता विधाता परमोत संदृक् ।

तेषामिष्टानि समिषा मदन्ति यत्रा सप्तऋषीन्पर एकमाहुः ॥

   - (ऋग्वेद मंडल - १०, सूक्त - ८२, मंत्र - २)

अर्थ - वो महान विश्वकर्मा जिसका समस्त जग को निर्माण करने का कार्य है और जो अनेक प्रकार के विज्ञान से युक्त ,समस्त पदार्थों में व्याप्त ,सबका धारण पोषण करनेवाला एवं रचने वाला, सबको एक समान देखने वाला , सबसे उत्तम जो है और जो परमात्मा अद्वितीय है वैसा कोई और नहीं है। विद्वान लोग कहते हैं वो सप्तऋषियों से भी ऊंचे स्थान पर स्थापित है औऱ उनकी अभिलाषाओ को हव्यान्न द्वारा पूर्ण करते हैं। 

विश्वकर्मन् हविषा वावृधानः स्वयं यजस्व पृथिवीमु़त द्याम् उत द्याम् ।

मुह्यन्त्वन्ये ऽ अभितो सपत्ना ऽ इहास्माकं मघवा सूरिरस्तु ॥

      - (यजुर्वेद अध्याय - १७, श्लोक - २२)

अर्थात - हे विश्व का निर्माण करने वाले विश्वकर्मा ! हम हवि से आप की बढ़ोतरी करते हैं , आप स्वयं यज्ञ कीजिए, आप पृथ्वी के हित के लिए यज्ञ कीजिए , हे परमात्मा आप हमारे शत्रुओं को मोहित कीजिए, आप यहाँ पर ज्ञानवान एवं तेजस्वी सूर्य के समान है।


ये संपूर्ण विश्व-ब्रह्मांड जिस ईश्वर का स्वरूप है वो ही ईश्वर ' विश्वरूप है। शास्त्रों में अनेकों स्थानो पर उस परमात्मा विश्वकर्मा को विश्वरूप ,विश्वात्मा , स्रष्टा , प्रजापति, धाता आदि कहा गया है यथा प्रमाण ;  


स विश्वकर्मा विश्वात्मा विश्वरूपः प्रजापतिः।

स्रष्टा धाता विभुर्विष्णुः संहर्ता मृत्युरन्तकः॥

  - (गरुडपुराण/आचारकाण्ड/अध्यायः १६६, श्लोक - २-३)

अर्थात - वह परमात्मा विश्वकर्मा विश्व की आत्मा, विश्वरूप, सर्व प्रजा के पालक हैं। वो ही सृष्टिकर्ता, पालनकर्ता, सर्वव्यापक ,सर्वशक्तिमान, संहारक, मृत्यु-संहारक हैं।


स सर्वगः सर्वशरीरभृच्च स विश्वकर्मा स च विश्वरूपः।

स चेतनाधातुरतीन्द्रियश्च स नित्ययुक् सानुशयः स एव ॥

   - (चरकसंहिता/शारीरस्थानम् - ५/२/३२)

अर्थात - वह सर्वव्यापी है और सभी शरीर धारण करता है, वह विश्व- ब्रह्मांड का निर्माता विश्वकर्मा है, वह संपूर्ण विश्व का रूप है, वह चेतना का तत्व है, वह इंद्रियों से परे हैं , वह परमात्मा विश्वकर्मा बिना किसी संदेह के शाश्वत सनातन हैं।


श्रीमहाविश्वकर्मपुराण में सृष्टि की उत्पत्ति से पूर्व का भी रहस्य बताया गया है जो इसप्रकार है; 

न ब्रह्मा नैव विष्णुश्च न रूद्रो न च देवता:।

एक एव भवेद्विश्वकर्मा विश्वाभि देवता ॥

   - (श्रीमहाविश्वकर्मपुराण अध्याय - २, श्लोक -११)

अर्थ - न ब्रह्मा थे , ना विष्णु थे , ना हि रुद्र शंकर थे तथा अन्य कोई देवता नहीं था, उस सर्व शून्यकाल में समस्त विश्व-ब्रह्मांड को अपने में ही आवृत अर्थात समाये हुये सबका पूज्य केवल एक ही विश्वकर्मा परमेश्वर परब्रह्म विद्यमान थे ।

ऋग्वेद को विश्व के प्राचीनशास्त्र की मान्यता देते हुये इसे विश्व धरोहर का दर्जा यूनेस्को (UNESCO) 'संयुक्त राष्ट्र शैक्षिक, वैज्ञानिक एवं सांस्कृतिक संगठन ' नामक विश्व की सर्वोच्च संस्था ने दिया है। उसी ऋग्वेद ने उस परमात्मा को विश्वकर्मा के रूप में उल्लेख किया है और वही ऋग्वेद विश्वकर्मा परब्रह्म को सृष्टि के अनंत स्वरूप विश्व के रूप में संबोधित करता है; 

विश्वतश्चक्षुरुत विश्वतोमुखो विश्वतोबाहुरुत विश्वतस्पात्।

सं बाहुभ्यां धमति सं पतत्रैर्द्यावाभूमी जनयन्देव एकः॥

  - (ऋग्वेद मंडल - १०, सूक्त - ८१, मंत्र - ३)

  - (मंत्र के देवता - विश्वकर्मा परमात्मा, ऋषि - भौवन) 

अर्थात - जगतकर्ता विश्वकर्मा प्रभु की सम्पूर्ण विश्व ही उनकी आँखे है अर्थात सब जगह उनकी आँखे हैं ,सम्पूर्ण विश्व ही उनके मुख है अर्थात सब जगह उनका मुख हैं , सम्पूर्ण विश्व ही उनकी भुजायें हैं अर्थात सब जगह उनकी भुजाएँ हैं और सम्पूर्ण विश्व ही उनके पग हैं अर्थात सब जगह उनके पैर हैं। सूर्यलोक तथा पृथ्वी लोक को उत्पन्न करता हुआ वह एक देव अर्थात विश्वकर्मा परमेश्वर अपनी भुजाओं और पैरों से हमें सम्यक प्रकार से युक्त कर देता है। 


विश्वकर्मनमस्तेस्तु विश्वात्मा विश्वसंभव।

विष्णो विष्णो हरे कृष्ण वैकुंठ पुरुषोत्तम ॥

 -(महाभारत शांतिपर्व युधिष्ठिर उवाच अध्याय-४३ श्लोक - ५)

अर्थात - तुम ही विष्णु, विष्णु हो, तुम ही हरे कृष्ण हो, वैकुंठ हो , तुम ही पुरुषोत्तम हो, तुम ही विश्वात्मा हो और जगत को उत्पन्न करने वाले हों । इससे हे विश्वकर्मा आपको नमस्कार है। 


*एष देवो विश्वकर्मा महात्मा सदा जनानां हृदये संनिविष्टः।*

*हृदा मनीषा मनसाभिकॢप्तो य एतद्विदुरमृतास्ते भवन्ति॥*         

  - (श्वेताश्वतर उपनिषद अध्याय - ४,श्लोक -१७)

अर्थात - ऐसे ब्रह्म ' विश्वकर्मा ' महान आत्मा है और वो सदा ही सभी जनों के हृदय में स्थित रहते हैं। यह प्रपंचनिषेध के उपदेश , आत्मानात्मक विवेक-बुद्धि और एकत्वज्ञान के द्वारा प्रकाशित होता है, इस ' विश्वकर्मा परमात्मा ' स्वरूप को जो जान लेता है वो अमर हो जाता है। 

ऋग्वेद के विश्वकर्मासूक्त के मंडल १० सूक्त ८२ मंत्र ३ में सभी देवताओं के नामों को स्वंय धारण करने वाले विश्वकर्मा परमात्मा हैं ऐसा उल्लेख आया है इस मंत्र के देवता विश्वकर्मा जी हैं ;

यो नः पिता जनिता यो विधाता धामानि वेद भुवनानि विश्वा। 

यो देवानां नामधा एक एव तं सम्प्रश्नं भुवना यन्त्यन्या॥

      - (ऋग्वेद मंडल - १०, सूक्त - ८२, मंत्र - ३)

      - (देवता - विश्वकर्मा परमात्मा, ऋषि - भौवन) 

अर्थात - वो ही परमात्मा विश्वकर्मा हमारा पालन करने वाले, उत्पन्न करने वाले व विश्वब्रह्माण्ड के उत्पत्तिकर्ता हैं तथा सभी देवों के तेज एवं सभी भुवनो को धारण करते है। *वो विश्वकर्मा परमात्मा सभी देवों के नामों को अकेले ही धारण करते हैं* सभी प्राणी उन्हीं परमात्मा विश्वकर्मा के विषय में जानना चाहते हैं। 

उपर्युक्त , मंत्र के देवता परमात्मा विश्वकर्मा हैं अर्थात सूक्त ८१ और ८२ के भी सभी मंत्र उन्हीं को समर्पित है और इस मंत्र के अर्थों से यह ज्ञात होता है कि *परमात्मा विश्वकर्मा* ही सभी देवों एवं सृष्टि के उत्पत्तिकर्ता हैं और मंत्र के अनुसार सभी देवताओं के नामों को वो ही धारण करते हैं। इसका अर्थ ये हुआ कि सभी देवों का नाम या उनकी स्तुति ' *परमात्मा विश्वकर्मा* ' की ही स्तुति है। शास्त्रो में कई विश्वकर्मा स्वरूप हैं सर्वप्रथम परमात्मा विश्वकर्मा और दूसरे देवाताओं के आचार्य देवशिल्पी विश्वकर्मा। यह दोनों स्वरूप एक दूसरे से पृथक अर्थात अलग हैं। 


पद्मपुराण के एक दिव्य श्लोक में स्वयं भगवान नृसिंह भक्त प्रहलाद को स्वंय को विश्वकर्मा संबोधित करते हुए साक्षात परमात्मा स्वरुप और सनातन कहा है ; 

विश्वकर्मा ह्यहं साक्षात्परमात्मा परात्परः।

उदरेऽहं न वत्स्यामि यतोऽहं वै सनातनः॥

   (पद्मपुराण/खण्ड - ६ (उत्तरखण्डः)/अध्याय - १७४,श्लोक - ३६) (भगवान नृसिंह और भक्त प्रहलाद संवाद)

अर्थात - मैं विश्वकर्मा हूँ साक्षात परमात्मा अर्थात सर्वोच्च आत्मा हूँ , पारलौकिक सर्वोच्च हूँ। मैं गर्भ में नहीं निवास करूंगा क्योंकि मैं सनातन,शाश्वत हूँ अर्थात मैं ही आदि, मध्य और अंत हूँ। 


विश्व-ब्रह्मांड की सृष्टि में पृथ्वी , जल , अग्नि , वायु औऱ आकाश ' अनादि ब्रह्म ' के द्वारा हर प्रलय के उपरांत उत्पन्न या प्रकट होते हैं। सृष्टि ' अनादि ब्रह्म ' नहीं है क्योंकि , सृष्टि का सृजन एवं प्रलय का निरंतर क्रम चलते रहता है। इस सृष्टिचक्र के बंधन से मुक्त जो सत्ता अटल रहती है वही ' स्रष्टा ' या ' अनादि ब्रह्म ' कहलाता है। जिसका ना आदि , ना मध्य और ना ही अंत हो वो ही ' अनादि ब्रह्म ' या ' सनातन ब्रह्म ' या 'विश्व ब्रह्म' कहलाता है। 

अनादि परमं ब्रह्म सत्त्वं नाम तदुच्यते ॥

     - (अग्निपुराण - अध्याय - ३८१, श्लोक - २८) 

अर्थात - वो परब्रह्म अनादि हैं उन्हें सत्वगुण से जाना जाता है। 

सभी पंचमहाभूत प्रकृति के अंग होते हैं और प्रकृति ' जड़ ' होती है इसलिए प्रकृति नाशवान है। परंतु , वो ब्रह्म चेतनतत्व है जिसका कभी नाश नहीं होता। उस अव्यक्त से व्यक्त प्रकट होता है। वो शून्य में रहकर ' अव्यक्त ' कहलाता है और दृश्य अर्थात प्रकट होकर ' व्यक्त ' या सृष्टि अर्थात ' विश्व ' कहलाता हैं और इसी विश्व को प्रकट करने वाले ब्रह्म ' विश्वकर्मा ' कहलाते हैं।


नारदपुराण में उन्हीं परमात्मा विश्वकर्मा को गायत्री मंत्र में ब्रह्म परमात्मा के लिये प्रयुक्त भूर्भुवुःस्वः स्वरूप बताया गया है ; 

वृषाकपय ऋद्धाय प्रभवे विश्वकर्मणे ।

भूर्भुवुःस्वःस्वरूपाय दैत्यघ्ने निर्गुणाय च ॥

   - (नारदपुराण - पूर्वार्धः/अध्याय - ६२, श्लोक - ६४)

अर्थात - हे प्रभु विश्वकर्मा , आप वृष (बैल) के सिर वाले (पशुपति) आप समृद्ध, संपन्न हैं ,आप ही भूर्भुवुःस्वःस्वरूप अर्थात भूलोक , अंतरिक्षलोक एवं स्वर्गलोक स्वरूप हैं, आप राक्षसों के संहारक एवं दिव्य निर्गुण निराकार हैं।


ब्रह्मांडपुराण, लिंगपुराण और वायुपुराण में एक ही श्लोक एक जैसा आया है जिससे यह प्रमाणित होता है कि विश्वकर्मा जी समस्त लोक, समुंद्र, पृथ्वी और सप्तद्वीपों के प्रलय से नष्ट होने के उपरांत हर कल्प में उनका हर बार सृजन अर्थात निर्माण करते हैं। 

ततस्तेषु प्रकीर्णेषु लोकोदधिगिरींस्तथा ।

विश्वकर्मा विभजते कल्पादिषु पुनः पुनः ॥

ससमुद्रामिमां पृथ्वीं सप्तद्वीपां सपर्वताम् ।

भूराद्यांश्चतुरो लोकान्पुनःपुनरकल्पयत् ॥

  -(ब्रह्माण्डपुराणम्/पूर्वभागः/अध्याय - ०५/श्लोक - २७-२८)

  -(लिंगपुराण - अध्याय - ७०,श्लोक - १३६ - १३७)

  - (वायुपुराणम्/पूर्वार्धम्/अध्याय- ६, श्लोक - ३१-३२)

अर्थात - समस्त लोक , समुद्र और पर्वतों के नष्ट हो जाने पर विश्व का सृजन करने वाले अर्थात विश्वकर्मा कल्प के आदि में बार बार पृथ्वी का विभाग और निर्माण करते हैं। इस नियम के अनुसार इस बार भी उन्होंने (विश्वकर्मा) समुंद्र, सप्तद्वीप, पृथ्वी आदि चारों लोकों का निर्माण किया। 


ब्रह्मवैवर्तपुराण मैं उस विश्वरूपी विश्वकर्मा को विश्व धारण करने वाला , विश्व के कारण का भी कारण आदि कहा है..

विश्वं विश्वेश्वरेशं च विश्वेशं विश्वकारणम् ।

विश्वाधारं च विश्वस्तं विश्वकारणकारणम् ॥

  - (ब्रह्मवैवर्तपुराण/खण्डः 1(ब्रह्मखण्डः)/अध्याय - ३, श्लोक - २५)

अर्थात - विश्व रूप , विश्व के ईश के भी ईश्वर ,विश्व के स्वामी, विश्व के कारण ,विश्व के आधार, विश्वस्त और विश्व के कारण के भी कारण आप 'विश्वकर्मा' परमात्मा ही हैं। 


उस परमतत्व को अगर जानना हो तो उस विश्व को जानना परम आवश्यक है। ' विश्व-ब्रह्म ' के नाभि में समस्त विश्व-ब्रह्मांड स्थित है ऐसी वेद वाणी है ; 

तमिद्गर्भं प्रथमं दध्र आपो यत्र देवाः समगच्छन्त विश्वे ।

अजस्य नाभावध्येकमर्पितं यस्मिन्विश्वानि भुवनानि तस्थुः॥

        - (ऋग्वेद - १०/८२/६)(यजुर्वेद- १७/३०)

        - (मंत्रदृष्टा ऋषि - भौवन , मंत्र देवता - विश्वकर्मा) 

अर्थात - जल ने उन्हीं विश्वकर्मा को अपने गर्भ में धारण किया था। वहीं सब देव एक दूसरे से मिले। उस जन्म रहित ब्रह्म परमात्मा विश्वकर्मा की नाभि में ब्रह्मांड स्थित है। उसी में सारा संसार स्थित है। 


अथर्ववेद को ब्रह्मवेद भी कहते हैं उसमें ब्रह्म परमात्मा विश्वकर्मा की महिमा का अभूतपूर्व वर्णन है उन्हें यज्ञपति के साथ साथ यज्ञ की सभी अभिलाषो को पूर्ण करने वाला परमात्मा कहा है;

ये भक्षयन्तो न वसून्यानृधुर्यान् अग्नयो अन्वतप्यन्त धिष्ण्याः।

या तेषामवया दुरिष्टिः स्विष्टिं नस्तां कृणवद् विश्वकर्मा॥

     - (अथर्ववेद कांड - २, सूक्त - ३५, मंत्र - १)

अर्थात - यज्ञ कार्य में धन न खर्च करके, भक्षण कार्य में धन खर्च करने के कारण हम समृद्ध नहीं हुए । इस प्रकार हम यज्ञ न करने वाले और दुर्यज्ञ करने वाले हैं। इसलिए श्रेष्ठ यज्ञ करने की अभिलाषा को यज्ञपति परमेश्वर विश्वकर्मा पूर्ण करें।


यज्ञपतिमृषयः एनसाहुर्निर्भक्तं प्रजा अनुतप्यमानम् ।

मथव्यान्त्स्तोकान् अप यान् रराध सं नष्टेभिः सृजतु विश्वकर्मा ॥

- (अथर्ववेद कांड - २, सूक्त - ३५, मंत्र - २)

अर्थात - प्रजाओ के विषय में अनुताप करने वाले यज्ञपति विश्वकर्मा को ऋषिगण पाप से अलग बताते हैं। जिन यज्ञपति विश्वकर्मा ने सोमरस की बूंदों को आत्मसात किया है ,वे विश्वकर्मा परमात्मा उन बूंदों से हमारी यज्ञ को संयुक्त एवं पूर्ण करें।


शास्त्रों के अनुसार वो ही परमात्मा विश्वकर्मा व्यक्त भी हैं और अव्यक्त भी , वो हो सनातन हैं , सर्व लोकों के अधिष्ठाता एवं प्रजाओं के अधिष्ठाता हैं ; 

पुरुषः शाश्वतो योगी व्यक्ताव्यक्तः सनातनः।

लोकाध्यक्षः प्रजाध्यक्षो विश्वकर्मा तमोनुदः ॥

 - (स्कन्दपुराण/खण्डः ७ (प्रभासखण्डः)/प्रभासक्षेत्र माहात्म्य /अध्याय - २७९, श्लोक - ११)

अर्थात - वो सर्वोच्च पुरुष विश्वकर्मा शाश्वत योगी, व्यक्त और अव्यक्त और सनातन अर्थात जिसका आदि ,मध्य और अंत नहीं है। विश्वकर्मा परमात्मा समस्त लोकों को अधिष्ठित करने वाले अधिष्ठाता , समस्त प्रजाओं के अधिष्ठाता हैं और समस्त अंधकार को दूर करने वाले हैं।


सत् चित् एकम् ब्रह्मा, स देव एक: विश्वकर्मा ।

सह्येव कर्माध्यक्ष: साक्षी सर्व भूतान्तरात्मा ॥

  - (विश्वब्रह्मोपनिषद) 

अर्थात - वो सर्वश्रेष्ठ ब्रह्म ही एकमात्र पूर्ण चेतना और अस्तित्व है वह विश्वकर्मा ही एकमात्र ईश्वर हैं। वह सभी कर्मों के स्वामी है और सभी प्राणियों के अंदर साक्षी स्वरूप आत्मा में निहित परमात्मा भी वही है।


विश्वकर्मा परमात्मा ही सर्वोच्च देवता हैं वो ही महान ईश्वर अर्थात महेश्वर भी हैं; 

एष एव परो देवो विश्वकर्मा महेश्वरः।

हृदये संनिविष्टं तं ज्ञात्वैवामृतमश्नुते ॥

   - (शिवपुराण/संहिता ७ (वायवीयसंहिता)/पूर्व भागः/अध्याय- ०६ , श्लोक -३८)

अर्थात - ऐसे विश्वकर्मा सर्वोच्च देवता हैं महेश्वर अर्थात महान ईश्वर हैं। उन्हें अपने हृदय में निवास करने वाला जानकर वो व्यक्ति अमृत तत्व को प्राप्त करता है।


विश्वानि कर्माणि येन यस्य वा स विश्वकर्मा।

विश्वेशु कर्म यस्य वा स विश्वकर्मा , विश्वकर्मा सर्वस्य कर्ता ॥

    - (यास्क निरुक्त - १०/२५) 

अर्थात - विश्व अर्थात सृष्टि जगत के सम्पूर्ण कर्म जिसके द्वारा सम्पन्न होते है अथवा सम्पूर्ण विश्व अर्थात सम्पूर्ण सृष्टि जगत में जिसका कर्म है वह सब जगत सर्वस्य कर्ता विश्वकर्मा हैं।


विश्व को सृजित करने वाले विश्वकर्मा को विश्व-ब्रह्माण्ड का महाशिल्पाधिपति मानकर उनकी स्तुति पद्ममहापुराण में की गई है ; 

दिवि भुव्यन्तरिक्षे वा पाताले वापि सर्वश: ।

यत्किंचिच्छिल्पिनां शिल्पं तत्प्रवर्तक ते नमः ॥

- (पद्ममहापुराण-भूखंड विश्वकर्मा महात्म्य अध्याय -२५ ,श्लोक- १७)

अर्थात - आकाश , भूमि , अंतरिक्ष और पाताल में जो कुछ भी शिल्पी ब्राह्मणों का शिल्प हैं , उसके प्रवृत्तकर्ता महाशिल्पाधिपति भगवान विश्वकर्मा को नमस्कार है। 


वायुपुराण ,पद्मपुराण और ब्रह्मांडपुराण में परमात्मा विश्वकर्मा की लगभग एक समान दिव्य स्तुति :- 

लोककृल्लोकतत्त्वज्ञो योगमास्थाय तत्त्ववित्।

असृजत् सर्वभूतानि स्थावराणि चराणि च ॥

तमजं विश्वकर्माणं चित्पतिं लोकसाक्षिणम्।

पुराणाख्यानजिज्ञासुर्व्रजामि शरणं प्रभुम् ॥

  - (वायुपुराणम्/पूर्वार्धम्/अध्यायः १, श्लोक - ५,६)


लोककृल्लोकतत्वज्ञो योगमास्थाय योगवित्।

असृजत्सर्वभूतानि स्थावराणि चराणि च ॥

तमजं विश्वकर्माणं चित्पतिं लोकसाक्षिणम्।

पुराणाख्यानजिज्ञासुर्व्रजामि शरणं विभुम् ॥

  - (पद्मपुराणम्‎ , खण्डः १ (सृष्टिखण्डम्), अध्याय-२ , श्लोक-२,३)


लोककृल्लोकतत्त्वज्ञो योगमास्थाय योगवित् ।

असृजत्सर्वभूतानि स्थावराणि चराणि च ॥

तसहं विश्वकर्माणं सत्पतिं लोकसाक्षिणम् ।

पुराणाख्यानजिज्ञासुर्गच्छामि शरणं विभुम् ॥

   - (ब्रह्माण्डपुराणम्/पूर्वभागः/अध्यायः ०१, श्लोक - ६ ,७)


अर्थात - सभी लोकों की रचना करने वाले और लोकों के तत्वों के ज्ञाता, योग के जानने वाले भगवान ने योग में समाहित होकर समस्त स्थावर(अचर) और जंगम(चर) जीवों की रचना की थी। पुराण के आख्यान की इच्छा वाले मैंने व्यापक सत्व लोकों के साक्षी विश्वकर्मा प्रभु की शरण ग्रहण की है। 


नमस्ते सर्वभूतात्मन् सर्वशक्तिधराव्यय ।

विश्वकर्मन् नमस्तेऽस्तु त्वां वयं शरणं गताः ॥

  - (श्रीमद्भागवतपुराण/स्कन्धः १०/उत्तरार्धः/अ.- ६८ श्लोक - ४८)

 अर्थात - हे सर्व शक्तियों को धारण करने वाले सभी प्राणियों के स्वरूप अविनाशी ईश्वर ! हे विश्व के निर्माण करने वाले विश्वकर्मा मैं आपको नमस्कार करता हूँ! मैं आपकी शरण में आया हूँ आप मेरी रक्षा करें।


परमात्मा विश्वकर्मा क़े अंतहीन एवं बृहद स्वरूप को विराट कहा जाता है। वो परमात्मा कण कण में व्याप्त है इसलिए उन्हें ही विष्णु (सर्वव्यापक) कहा जाता है। वो ही परमात्मा विश्वकर्मा जब सभी जीवों का कल्याण समान रूप से करते है तो शिव कहलाते हैं। जब वो ब्रह्मांड की सर्जना कर संचालित करते है तो ब्रह्मा कहलाते हैं। जब वो समान रूप से अपनी विश्वसृष्टि के सभी प्रकार की प्रजाओं का पालन करते हैं तो प्रजापति कहलाते हैं। वो परमात्मा विश्वकर्मा ऋग्वेद के मंडल १० के सूक्त ८२ मंत्र ३ (यो देवानां नामधा एक एव..) के अनुसार वो परमात्मा विश्वकर्मा सभी देवों के नामों को अकेले ही स्वंय धारण करते हैं। यही वेदवाणी है और जो भी मनुष्य वेदों की वाणी के विपरीत जाएगा वो वेदों के अनुसार नास्तिक कहलाएगा। नास्तिको वेद निंदक:।


विश्वकर्मा एक उपाधि भी है जो शास्त्रों में कई देवताओं जैसे ब्रह्मा, इन्द्र , अग्नि , देवशिल्पी आदि एवं ऋषियों जैसे भौवन , कश्यप , बृहस्पति आदि को भी प्राप्त हुई। इसी कारण देवताओं के शिल्पी एवं आचार्य को देवशिल्पी प्रजापति विश्वकर्मा या त्वष्टा विश्वकर्मा कहा गया है;

बृहस्पतेस्तु भगिनी वरस्त्री ब्रह्मचारिणी ।

योगसिद्धा जगत्कृत्स्नमसक्ता विचरत्युत ।

प्रभासस्य तु सा भार्या वसूनामष्टमस्य तु ॥

विश्वकर्मा महाभागस्तस्यां जज्ञे प्रजापतिः।

कर्ता शिल्पसहस्राणां त्रिदशानां च वार्धकिः॥

  - (विष्णुपुराण/प्रथमांश:/अध्याय -१५, श्लोक - ११८-११९)

अर्थात - देवगुरु बृहस्पति की बहन वरस्त्री(भुवना), जो ब्रह्मचारिणी थी और सिद्ध योगिनी थी तथा अनासक्त भाव से समस्त भूमंडल में विचरती थी, वो आठवें वसु प्रभास की धर्मपत्नी हुई। उन्हीं के पुत्र रूप में सहस्त्रों शिल्पों के कर्ता , देवताओं के शिल्पी एवं आचार्य महाभाग अर्थात महाभाग्यशाली प्रजापति त्वष्टा विश्वकर्मा प्रकट हुए।


देवाचार्य देवशिल्पी भगवान विश्वकर्मा जी का दिव्य स्वरूप लक्ष्मीनारायण संहिता में वर्णित हैं ; 

विश्वकर्मा चतुर्बाहुरक्षमालां च सूत्रकम् ।

गजं कमण्डलुं धत्ते त्रिनेत्रो हंसवाहनः ।।

 - (लक्ष्मीनारायणसंहिता/खण्ड-२/अध्याय-१४२/श्लोक- १०)

अर्थात - चार भुजाओं वाले देवाचार्य देवशिल्पी भगवान विश्वकर्मा जी ने रक्षमाला और एक धागा (जनेऊ) धारण किया हुआ है। उनके पास एक हाथी और एक जलपात्र है, उनकी तीन आंखें हैं और उनके पास एक हंस वाहन स्वरूप भी है। 


इनके कर्मो की प्रशंशा में वराहमहापुराण में विस्तृत उल्लेख है जो इसप्रकार है ;

संसारे वर्तमानानां लोकानां हित काम्यया।

अग्निष्टोमादि कर्तृणां यज्वाना महतामपि॥

सर्वेषां चैव वर्णानां स्थिति कारणात।

शिलादारू विशेशादि प्रतिमात्पादनाथ च॥

सर्वलोकापकारार्थ ब्रह्मा संचित्य बुद्धित:।

स्वस्य हस्तात्समूत्पन्नो विश्वकर्मा भवत् भुवि ॥

सर्वकर्मसु सम्पूज्या भुसूराचार्य तत्पर:।

विवाहादिषु यज्ञेषु गृहाराम विधायक:॥

   - (वराहमहापुराण अध्याय-५६, व्या.- ४२)

   - (भगवान विश्वकर्मा प्रामाणिक परिचय पृष्ठ - ४ (लेखक - इंजी.पं.रामनयन शर्मा )

अर्थात - विश्व-ब्रह्माण्ड की सृष्टि में सर्वलोकों के हित के लिए अग्निहोत्रादि यज्ञ-हवन तथा शिल्पसाध्य विज्ञानादि बड़े-बड़े यज्ञों के करने कराने तथा सभी वर्णों के प्राणियों को स्थिर रखने हेतु पाषाण (शिला), काष्ठ (लकड़ी) आदि की प्रतिमाओं के निर्माणात , सर्वलोकों के उपकारार्थ ब्रह्म परमेश्वर (विराट विश्वकर्मा) ने बुद्धि से विचार कर शिल्पी प्रजापति विश्वकर्मा को पृथ्वी पर उत्पन्न किया। वह महान पुरुष प्रजापति विश्वकर्मा भवन तथा यंत्रादि समस्त संसार के शिल्पी पदार्थों की रचना एवं निर्माण करने वाला ,यज्ञ-हवन में तथा विवाहादि समस्त धार्मिक शुभ कार्यो के मध्य पूज्य ब्राह्मणों के आचार्य अर्थात गुरु कहलाए। 


भौमान्येक रूपाणि यस्य शिल्पाणि मानव:।

उपजिवन्ति तं विश्वं विश्वकर्माण मीमहि ॥

  - (पद्ममहापुराण भूखंड अध्याय-२५, श्लोक -१५)

अर्थात - जिन्होंने इस पृथ्वी पर नाना प्रकार के चमत्कारी पदार्थों के रूप को उत्पन्न किया है और जिनकी शिल्प विद्या से संपूर्ण मानव जाति उपजीविका अर्थात जीवन निर्वाह करती है , ऐसे विश्वकर्मा देव को हमारा नमस्कार है। 


विभिन्न ग्रंथ शास्त्रों में देवाचार्य देवशिल्पी भगवान विश्वकर्मा जी को त्रिदशाचार्य , देवाचार्य , महाचार्य, शिल्पाचार्य ,विप्र , द्विज आदि आचार्य या ब्राह्मण सूचक उपाधियों से संबोधित किया है ; 

परमार वंश के क्षत्रिय राजा भोज जो वास्तु एवं शिल्पकला के महान विद्वान थे उन्होंने विश्वकर्मा जी को अपना इष्टदेव मानकर एक ग्रंथ की रचना की है जिसका नाम समरांगण सूत्रधार है जो भारत में वास्तुकला का सर्वोत्कृष्ट ग्रंथो में से एक है। उसमें राजा भोज ने देवशिल्पी विश्वकर्मा को देवताओं का आचार्य कहा है;

तदेष त्रिदशाचार्यः सर्वसिद्धिप्रवर्तकः।

सुतः प्रभासस्य विभोः स्वस्रीयश्च बृहस्पतेः॥

 - (राजा भोज रचित समरांगण सूत्रधार - अध्याय - १,श्लोक -१९)

अर्थात - त्वष्टा प्रजापति विश्वकर्मा जी देवताओं के आचार्य हैं और सभी सिद्धियों के अधिष्ठाता हैं। ये अष्टम वसु प्रभाष के पुत्र औऱ देवगुरू बृहस्पति के भांजे हैं। 


सनातनी शास्त्रों में भी देवशिल्पी भगवान विश्वकर्मा जी को देवाचार्य अर्थात देवताओं के आचार्य से संबोधित किया गया हैं ; 

देवाचार्यस्य महतो विश्वकर्मस्य धीमतः।

विश्वकर्मात्मजश्चैव विश्वकर्ममयः स्मृतः॥

   - (वायुपुराण/उत्तरार्धम्/अध्याय - २२, श्लोक - २०)

  अर्थात - महान और धीमान अर्थात बुद्धिमान विश्वकर्मा देवताओं के आचार्य (गुरु) हुए हैं और उनके पुत्र भी उन्हीं के समान गुणों वाले हुए।


देवाचार्यस्य तस्येयं दुहिता विश्वकर्मणः।

सुरेणुरिति विख्याता त्रिषु लोकेषु भामिनी ॥

  - (स्कन्दपुराण/खण्डः ७ (प्रभासखण्ड)/प्रभासक्षेत्र माहात्म्यम्/अध्यायः ०११/श्लोक - ७५)

अर्थात - देवताओं के आचार्य विश्वकर्मा की सुंदर पुत्री जो है वो तीनों लोकों में सुरेणु के नाम से प्रसिद्ध है।  


हरिवंशपुराण में देवशिल्पी विश्वकर्मा जी को शिल्प के आचार्य एवं देवताओं में श्रेष्ठ एवं महान बुद्धिजीवी संबोधित किया गया हैं ; 

तस्मिन्नेव ततः काले शिल्पाचार्यो महामतिः।

विश्वकर्मा सुरश्रेष्ठः कृष्णस्य प्रमुखे स्थितः॥

 (हरिवंशपुराण/पर्व २ (विष्णुपर्व)/अध्यायः ०५८,श्लोक -२२) 

अर्थात - उसी क्षण देवताओं में श्रेष्ठ महान बुद्धिजीवी देवताओं के शिल्पी के आचार्य विश्वकर्मा जी भगवान कृष्ण के सामने प्रकट हुए। 


विश्वकर्मा जी को ब्रह्म पुराण में विष्णु भगवान के समानांतर रखते हुए विप्र अर्थात ब्राह्मण एवं महाभाग कहा गया है ; 

विश्वकर्मा च विष्णुश्च विप्ररूपधरावुभौ।

आजग्मतुर्महाभागौ तदा तुल्याग्रज्न्मानौ॥

   - (ब्रह्मपुराण ,अध्याय - ५०, श्लोक - २५)

अर्थात - संसार में पहले प्रकट होने वाले विश्वकर्मा और विष्णु दोनों महाभागो ने ब्राह्मण स्वरूप धारण करके सृष्टि पर प्रकट हुए। 


लिंगपुराण में विश्वकर्मा जी को आचार्यों का आचार्य अर्थात महाचार्य कहा गया है ;

अनंतदृष्टिरानंदो दंडो दमयिता दमः।

अभिवाद्यो महाचार्यो विश्वकर्मा विशारदः॥

     - (लिङ्गपुराण - पूर्वभाग/अध्याय - ९८, श्लोक - ५७)

अर्थात - शिवरूपी विश्वकर्मा अनंत दृष्टिवाला है , दंड को देने वाला है , दम को दमन करने वाला है, महा आचार्य है, अभिवाद्य है, वो विश्वकर्मा विशारद अर्थात सब कुछ जानने वाला ज्ञाता है।


मार्कण्डेयपुराण में देवाचार्य देवशिल्पी भगवान विश्वकर्मा जी को ब्राह्मण संबोधित किया गया हैं ; 

शातनं तेजसो मेऽद्य क्रियतामिति भास्करः।

तञ्चाह विश्वकर्माणं संज्ञायाः पितरं द्विज॥

   - (मार्कण्डेयपुराण/अध्यायः- ७७/श्लोक - ४१)

अर्थात - संज्ञा के पिता विश्वकर्मा जी से सूर्य ने कहा - हे ब्राह्मण , आप मेरा तेज घटा दीजिये।


मनुष्याश्चोपजीवन्ति यस्य शिल्पं महात्मनः॥

       - (शिवपुराण/संहिता ५(उमासंहिता)/अध्यायः ३१, श्लोक - ३४)

अर्थात - संपूर्ण मनुष्य जाति शिल्प से अपनी अपनी जीविका का निर्वहन करती हैं जो उस महात्मा अर्थात देवाचार्य देवशिल्पी विश्वकर्मा द्वारा निर्मित है।


देवाचार्य देवशिल्पी विश्वकर्मा जी के बिना कोई भी मंदिर का वास्तु मंडल पूर्ण ही नहीं होता। किसी भी मंदिर के वास्तुमन्डल में वास्तुदेव , विनायक के साथ भगवान विश्वकर्मा जी की भी पूजा होनी चाहिये ऐसे शास्त्रीय प्रमाण सिद्ध करते है ;

सर्वेषां वास्तुविद्योक्ता देवतानां यथाविधि ।

श्रियाः सम्पूजनं कृत्वा वासुदेवस्य चाप्यथ ।।

पूजनं मण्डले कार्ये वास्तुदेवगणस्य च। 

विनायकस्य देवस्य विश्वकर्मण एव च ।।

  - (विष्णुधर्मोत्तरपुराण/खण्ड - ३/अध्याय - ९४, श्लोक - १५-१६) 

अर्थात - भगवान देवशिल्पी विश्वकर्मा समस्त कर्मकांडी शास्त्रों के अनुसार सभी देवताओं के वास्तुकार हैं, भाग्य की देवी और भगवान वास्तुदेव की पूजा करने के बाद मंडल में वास्तु देवों की पूजा के साथ में विनायक और विश्वकर्मा देवता की भी पूजा करनी चाहिये है।


देवाचार्य देवशिल्पी भगवान विश्वकर्मा महान माया को फैलाने वाले हैं और विभिन्न आश्चर्यो से भरे हुए हैं ऐसा शिवपुराण का कथन है ; 

विचित्रम्मण्डपं गेहेऽकार्षीत्तस्य तदाज्ञया।

विश्वकर्मा महामायी नानाश्चर्यमयं विभो॥

  - (शिवपुराण/संहिता २ (रुद्रसंहिता)/खण्डः ३ (पार्वतीखण्ड)/अध्यायः ४१ श्लोक - ४५) 

अर्थात - उनके आग्रह पर उन्होंने अपने घर में एक अद्भुत मंडप बनवाया , हे पराक्रमी विश्वकर्मा जी आप महान माया को फैलाने वाले और विभिन्न आश्चर्यों अर्थात चमत्कारों से भरे हुए हैं।

स्कंदपुराण की एक कथा के अनुसार विश्वकर्मा जी पूर्वकाल में ब्रह्मा जी के अवतार थे और वह सभी कर्मकांड में निपुण थे ; 

विश्वकर्माभवत्पूर्वं ब्रह्मणस्त्वपरा तनुः ।

त्वष्टुः प्रजापतेः पुत्रो निपुणः सर्वकर्मसु ।।

(स्कन्दपुराण/खण्ड-४(काशीखण्ड)/अध्याय-८६/ श्लोक - ३)

अर्थात - पूर्वकाल में विश्वकर्मा जी ब्रह्मा के एक अन्य अवतार थे, वे प्रजापति त्वष्टा (ब्रह्मा) के पुत्र थे जो सभी प्रकार के कर्मकांडों में निपुण थे। 


संपूर्ण मनुष्य जाति नित्य अपने जीवन के प्रारंभ से मरणोपरांत तक उपभोग करते हुए उपजीविका अर्थात जीवन निर्वाह करते है। शिल्प एवं वास्तुकला से ही यज्ञवेदी (यज्ञकुंड), यज्ञशाला, यज्ञपात्र आदि निर्माण होता है। जो ब्राह्मण वास्तु एवं शिल्प नही जानता उसे यज्ञ करने का अधिकार नही है। क्योंकि वेदांग कल्प के शुल्ब सूत्र से शिल्पकर्म और वेदांग ज्योतिष की संहिता स्कंध से वास्तुकला की उत्पत्ति हुई है। वेदांग के अन्तर्गत शिल्पकर्म औऱ वास्तुकला को जानने वाला ब्राह्मण ही कहलाता है। वास्तु एवं शिल्प के साथ सभी कर्मकांड को जानने वाला ब्राह्मण ही पूर्ण ब्राह्मण कहलाता है। इसलिए विश्वकर्मा वैदिक ब्राह्मणों को ब्रह्मशिल्पी ब्राह्मण भी कहते हैं। मत्स्य पुराण (अध्याय २५२, श्लोक २-३-४) में वास्तु-शिल्प के १८ उपदेशक ऋषियों का वर्णन है। जिनमे भृगु , अत्रि , वशिष्ठ, बृहस्पति , शौनक , विश्वकर्मा आदि है जिन्होंने स्वंय शिल्पकर्म किया औऱ वास्तु एवं शिल्पकर्म का ज्ञान सभी मनुष्यों तक पहुँचाया। 

वैदिक शास्त्रों में बहुत जगह ब्राह्मणों के सूचक के रुप में देवता , शिल्पी , आचार्य, विप्र ,मनीषी, स्थपति, रथकार , शर्मा, जांगीड, धीमान , पाँचाल, तक्षा, वर्धकी आदि सब शब्द प्रयोग हुये है । समस्त सनातन धर्मीयो एवं समस्त विश्व को ' माघ शुक्ल त्रयोदशी' अर्थात ' विश्वकर्मा प्रकट दिवस' औऱ 'विश्वकर्मा पूजन दिवस' को हर्षोल्लास से मनाना चाहिए। विश्वकर्मा पूजन दिवस जों हर वर्ष कन्या संक्राति को आता है। इस दिन की ये मान्यता है कि इसी दिन से परमात्मा विश्वकर्मा ने विश्व-ब्रह्मांड (सृष्टि) की उत्पत्ति प्रारंभ कर दी थी। परब्रह्म विश्वकर्मा परमात्मा का कोई एक जाति विशेष या धर्म विशेष मात्र वंशी नही है अपितु, ये सृष्टि के कण कण इनके वंशी है जिसमें समस्त जीव आते हैं। मनुष्य तो उन्हीं में एक जीव है। किसी मनुष्य का वंश एवं गोत्र ऋषियों से होता है अपितु , परमात्मा , ईश्वर एवम् देवताओं से तो प्रकृति की हर जीव एवम् वस्तु जुड़ी हुई है इनके अंश सभी में होते है और ये सभी के लिये पूज्यनीय होते है। चाहे वो परब्रह्म विश्वकर्मा परमात्मा हो या देवशिल्पी विश्वकर्मा जी(त्वष्टा विश्वकर्मा) हों ये दोनों देश , जाति, धर्म और संप्रदाय से भी परे हैं। विश्व का प्राचीनतम शास्त्र ऋग्वेद मंडल १०, सूक्त ८२, मंत्र ७ क्या कहता देखिये, जानिये और ग्रहण करिये ;

न तं विदाथ य इमा जजानान्यद्युष्माकमन्तरं बभूव ।

नीहारेण प्रावृता जल्प्या चासुतृप उक्थशासश्चरन्ति ॥

   - (ऋग्वेद मंडल -१० , सूक्त -८२, मंत्र - ७)

   - (मंत्र देवता - विश्वकर्मा परमात्मा)

 अर्थात - जिन ब्रह्म विश्वकर्मा ने उन सब प्राणियो को उत्पन्न किया था , उसे तुम नहीं जानते। तुम्हारा हृदय उस ब्रह्म परमात्मा को जानने की योग्यता नहीं रखता। उस विश्व - ब्रह्मांड को उत्पन्न करने वाले विश्वकर्मा परमात्मा को त्याग कर लोग अज्ञानता में पढ़कर अलग अलग व्याख्यान करते हैं, भोजन पकाते हुये तरह तरह की स्तुतियाँ करते है और स्वर्ग एवं मोक्ष पाने का मार्ग ढूँढते हैं। (अपितु , उस परमात्मा विश्वकर्मा को जानने के उपरांत और कुछ जानना शेष नहीं रह जाता। )

वो परमेश्वर विश्वकर्मा हमारी कल्पना से भी परे है निराकार है और ये संपूर्ण सृष्टि ही उसकी साकार स्वरूप मूर्ति है। इसलिए परमात्मा विश्वकर्मा एवं देवाचार्य देवशिल्पी विश्वकर्मा इन सब कलयुगी मायारुपी विभाजित मान्यताओं से भी परे हैं और सर्वपूज्यनीय हैं। 

  🚩ॐ नमो विश्वकर्मणे🚩




       संकलक एवं लेखकर्ता 

        - पं.संतोष आचार्य

 अखंड विश्वकर्मा ब्राह्मण महासभा® (संपूर्ण भारत)

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